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और जब तक योनि का ध्वंस (नाश) नहीं होता तब तक उसका योनिभूत रूप में व्यवहार होता है और जब योनि का ध्वंस होता है तब तो वह अजीव होने से वह अयोनिभूत ही कहलाता है। (५१)
यन्नष्टेऽपि सजीवत्वे योनित्वे जातुचिद्भवेत् । परिभ्रष्टे तु योनित्वे सजीवत्वं न सम्भवेत् ॥५२॥
क्योंकि सजीवत्व नष्ट होने पर भी कदाचित् योनित्व तो हो परन्तु योनित्व नष्ट होने पर सजीवत्व संभव नहीं है। (५२) एवं च........ उत्पत्ति स्थानकं जतोर्यदविध्वस्तशक्तिकम् ।
__सा योनिस्तत्र शक्तिस्तु जन्तूत्पादनयोग्यता ॥५३॥ इस प्रकार होने से जिसकी शक्ति का विनाश नहीं हुआ हो उसकी जन्तु की उत्पत्ति का जो स्थानक है वह योनि है और उसमें जन्तु-जीव उत्पन्न होने की जो योग्यता है वह शक्ति है। (५३) . .. तथोक्तं प्रज्ञापना वृत्तौ "अथ योनिरिति किमभिधीयते। उच्यते। जन्तोः उत्पत्ति स्थानं अविध्वस्तशक्तिकं तत्रस्थजीव परिणाम न शक्ति संपन्नम्।" इति॥ . . . - इस सम्बन्ध में पन्नवना सूत्र की वृत्ति में कहा है कि-योनि किसको कहते है? जिससे शक्ति का नाश होते जन्तु की उत्पत्ति स्थान हो वह योनि कहलाती है और उसमें रहे. जीव का परिणाम आने की शक्ति से वह संपन्न होता है।'
अतएव श्रुतेऽपियवायवयवाश्चापि गोधूम वीहि शालयः । धान्यानां श्री जिनैरेषामुक्ता योनिस्त्रिधार्षिकी ॥५४॥
इस कारण से श्रुत सिद्धान्त में भी कहा है कि यव, यवयव, गोधूम, चावल और शाल- इतने अनाज की योनि तीन वर्ष की श्री जिनेश्वर भगवन्त ने कही है। (५४)
कलादमाष चपलतिलमुद्गमसूरकाः । तुलस्थ तुवरी वृत्त चणका वल्लकास्तथा । . प्रज्ञप्ता योनिरैतेषां श्रीजिनैः पंच वार्षिकी ॥५५॥षट्पदी।।
तथा कलाद, उलद, चपल, तिल, मूंग, मसूर, अरहर, तुलस्थ, मटर और बाल-राजमा आदि अनाज की पांच वर्ष की योनि कही है। (५५)