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तथा जो पूर्वजन्म छोड़कर बादर अपर्याप्त अग्निकाय का आयुष्य अनुभव करता है वह उदितायु कहलाता है। (२०१)
तत्रैक भविका बद्धायुषश्च द्रव्यतः किल ।। स्थूला पर्याप्ताग्नयः स्युः भाव तस्तूदितायुषः ॥२०२॥
इन तीन में प्रथम और दूसरा द्रव्य से बादर अपर्याप्त अग्निकाय है और तीसरे प्रकार का भाव से है। (२०२)
अत्र च ...... द्रव्यतो बादराऽपर्याप्ताग्निभिः प्रयोजनम् । . . स्थूला पर्याप्तप्तानयो ये भावतः तैः प्रयोजनम्॥२०३॥
और यहां द्रव्य से जो बादर अपर्याप्त अग्निकाय है उसके साथ अपना कोई प्रयोजन नहीं है, भाव से जो है उसके साथ प्रयोजन है। (२०३)
ततश्च- याप्युक्त कपाटाभ्यां तिर्यंगलोकाच्च ये वहिः। उदित बादरा पर्याप्ताग्न्यायुष्का भवन्ति हि ॥२०४॥ तेप्युच्यन्ते तथात्वेन ऋजु सूत्रनयाश्रयात् । तथापि व्यवहारस्य नयस्याश्रयणादिह ॥२०५॥ ये स्वस्थानसम श्रेणिक पाटद्वयसंस्थिताः । स्व स्थानानुगते ये च तिर्यग्लोके प्रविष्टकाः ॥२०६॥ तें एवं व्यपदिय॑ते ऽपर्याप्त बादरायः। शेषाः कपाटान्तरालस्थिता नैव तथोदिताः ॥२०७॥ कलापकम् ॥
और इससे यद्यपि पूर्वोक्त कपाट से और तिर्यग् लोक से बाहर जो उदित बादर अपर्याप्त अग्निकाय के आयुष्य वाले होते हैं वे भी ऋजु सूत्र नय से उसी प्रकार के कहलाते हैं, फिर भी व्यवहार नय से जो स्वस्थान सम श्रेणि वाले दो कपाट में रहते हैं तथा जिन्होंने स्वस्थानानुगत तिर्यग् लोक में प्रवेश किया हो वही प्रकार जात के कहलाते है। कपाट के अन्दर रहे शेष इस प्रकार के नही कहलाते हैं। (२०४-२०७) .
येनाद्याप्यागतस्तिर्यग् लोकेऽथवा कपाटयोः ।
ते प्राक्तन भवावस्था एव गण्या मनीषिभिः ॥२०८॥ .. और जो आज के दिन तक भी तिर्यग् लोक में प्रवेश नहीं कर सका, उसकी तो पूर्वजन्म की ही अवस्था है, ऐसा समझ लेना चाहिए । (२०८)