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इति योनि संवृतत्वादि ॥६॥ अब इसकी योनि के संवृतत्व आदि विषय में कहते हैं- यह बादर एकेन्द्रिय की योनि तीन प्रकार की हैं १- सचित, २- अचित और ३- मिश्र अर्थात् शीत, उष्ण और शीतोष्ण और अग्निकाय के सिवाय अन्य सबकी तीन प्रकार की है और अग्निकाय की उष्ण योनि ही है। पांच प्रकार की योनि संवृत्त है। इस तरह श्री जिनेश्वर भगवन्त कह गये हैं क्योंकि उनका उत्पत्ति स्थान स्पष्ट दिखता नहीं है। (२२४-२२५)
इस तरह योनि संवृत्व है। (६) द्वाविंशतिः सहस्राणि वर्षाणामोघतो भवेत् । पृथ्वीकाय स्थितियेष्टा विशेषस्तत्र दर्श्यते ॥२२६॥
अब उसकी भवस्थिति के विषय में कहते हैं- १- पृथ्वीकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति ओघ से अर्थात् एकत्रित रूप से बाईस हजार वर्ष की होती है। उसकी अलग-अलग स्थिति इस प्रकार है। (२२६) ।
एकं वर्षसहस्रं स्यात् स्थिति]ष्टा मृदुक्षितेः । द्वादशाब्द सहस्राणि कुमार मृत्तिका स्थितिः ॥२२७॥ चतुर्दश सहस्राणि सिकतायास्तु जीवितम् । मनः शिलायश्चोत्कृष्टं षोडशाब्द सहस्त्रकाः ॥२२८॥ अष्टादश सहस्राणि शर्कराणां गुरु स्थितिः । द्वाविंशतिः सहस्राणि स्यात्साश्मादि खरक्षिते ॥२२६॥
जो मृदु-कोमल पृथ्वीकाय हो उसकी उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष की है, कुमारी मिट्टी की उत्कृष्ट बारह हजार वर्ष की, रेती सदृश की चौदह हजार वर्ष की, मन:शिल की सोलह हजार वर्ष की, पत्थर के टुकड़ों के समान हो तो उसकी अठारह हजार वर्ष की है और कठोर पत्थर हो उसकी बाईस हजार वर्ष की उत्कृष्ट भवस्थिति होती है। (२२७-२२८)
सप्त वर्ष सहस्राणि ज्येष्टा स्यादम्भसां स्थितिः । त्रयो वर्ष सहस्राश्च मरुतां परमा स्थितिः ॥२३०॥ अहोरात्रास्त्रयोऽग्नीनां दस वर्ष सहस्रकाः । प्रत्येक भूरुहामन्येषां तु सान्तर्मुहूर्तकम् ॥२३१॥