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इस तरह वनस्पतिकाय के उत्पत्ति स्थान हुए ।
उपापात समुद्घात निज स्थानैः भवन्ति हि । लोकसंख्यातमे भागे पर्याप्ता बादरा इमे ॥ १६२॥
इन पर्याप्त बादर जीवों का उपघात, समुद्रघात और स्वस्थान लोक के असंख्यवें भाग में होता है । (१६२)
तत्र. वायोः तु अयं विशेष: पंच संग्रह वृत्तौ - "बायर पवणा । असंखेजेत्ति ॥ लोकस्य यत्किमपि शुषिंर तत्र सर्वत्र पर्याप्त बादर वायवः प्रसर्पन्ति । यत्पुनः अतिनिबिड निचिततया शुषिरहीनं कनक गिरि मध्यादि तत्र न । तच्च लोकस्यासंख्येय भागमात्रम् । ततः एकमसंख्येय भागमुक्त्वा शेषेषु सर्वेषु अपि असंख्येयेषु वायवो वर्तन्ते । इति ॥
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परन्तु इसमें वायु के सम्बन्ध में पंच संग्रह वृत्ति में विशेषता बताई है । वह इस प्रकार - 'लोक में जहां खाली जगह है वहां सर्वत्र पर्याप्त बादर - वायु का विस्तार है । परन्तु मेरु पर्वत के मध्य भाग आदि जो-जो प्रदेश अत्यन्त निबिड और निचित होने से खाली न हो वहां उस वायु का प्रचार नहीं हैं। वह प्रदेश लोक के असंख्यवें भाग जितना है । अत: इतने प्रदेश के अलावा अन्य सर्व स्थान पर इस वायु का संचार है।'
" पर्याप्त बादर बनस्पतयः उपपात समुद्घाताभ्यां सर्वलोक व्यापिनः स्वस्थानतो लोकसंख्येय भागे ।" इति प्रज्ञापना वृत्तौ ॥
. तथा पर्याप्त वनस्पति का उपाघात और समुद्घात सर्वलोक में होता है और इसके स्व स्थान लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। इस तरह पन्नवना सूत्र की वृत्ति के कर्त्ता ने कहा है ।
अपर्याप्तस्तु सर्वे स्वस्थानैः पर्याप्तसन्निभाः ।
उपपात समुद्घातैस्त्यशेष लोक वर्त्तिनः ॥ १६३॥
सर्व अपर्याप्त के स्वस्थान पर्याप्त के समान ही हैं और इनका उपपात और समुद्घात सर्वलोक में होता है । (१८६३)
नवरम् - वह्नि कायस्त्व पर्याप्तस्तिर्यग्लोकस्य तट्टके । उपपातेन निर्दिष्टो द्वयोर्लोक कपाटयोः ॥ १६४ ॥
यहां कुछ विशेषता है । वह इस तरह - अपर्याप्त अग्निकाय उपपात से तिर्यग् लोक के तट पर दो लोक के कपाट रूप में रहा है। वह इस प्रकार से । (१६४)