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(३६२) तच्चैवम्
आलोकान्तं दीर्घ सार्धद्वीपाम्बुधिद्वय विशाले । अध ऊर्ध्वं लोकान्तस्पृशी कपाटे अभे कल्प्ये ॥१६॥
अन्तिम लोकान्त तक दीर्घ, अढाई द्वीप सहित दो सगरोपम जितना विस्तृत तथा उत्तर और दक्षिण दिशा में लोकांत को जो स्पर्श करते हैं, ऐसे दो कपाट की कल्पना करनी । (१६५)
तयोः कपाटयोः तिर्यग्लोकेऽन्त्याम्भोधि सीमनि । योजनाष्टादशशत बाहल्ये सर्वतोऽपि हि ॥१६॥ . अपर्याप्त बादरागे: स्थानं स्यादुपपाततः । तिर्यग्लोकं कपाटस्थमेव के ऽप्यत्रमन्वते ॥१६॥
इन दोनों कपाटों में तथा- अन्तिम समुद्र तक के और सर्वतः अठारह शत योजन की मोटाई वाले तिर्यग्लोक में उपपात से अपर्याप्त बादर अग्निकाय का स्थान है। यद्यपि कई इस तरह कहते हैं कि कपास्थ तिर्यग्लोक ही इसका स्थान है। (१६६-१६७)
त्रिधा बादर पर्याप्ताः तेजस्कायिक देहिनः । स्युरेक भविका बद्धायुषश्चाभ्युदितायुषः ॥१६८॥
बादर पर्याप्त अग्निकाय के जीव के तीन भेद होते हैं; १- एक भवी, . २- बद्धायु और ३- उदितायु। (१६८)
तत्रयेऽनन्तरभवे उत्पन्स्यन्तेऽग्निकायिषु । .
अपर्याप्त बादरेषु त एकंभविकाः स्मृताः ॥१६६॥
इसमें जो भविष्य के अनन्तर भव में अपर्याप्त बादर अग्निकाय में उत्पन्न होने वाला हो वह एकभवी कहलाता है। (१६६)
ये तु पूर्वभवसत्कतृतीयांशादिषु धुवम् ।। बद्ध स्थूलाऽपर्याप्त्याग्न्यायुष्का बद्धायुषश्च ते ॥२००॥
जिसने गए जन्म के तृतीयांश में बादर अपर्याप्त अग्निकाय का आयुष्य बंधन किया हो, वह बद्धायु कहलाता है। (२००)
ये तु पूर्वभवं त्यक्त्वा साक्षादनुभवन्ति वै । . स्थूला पर्याप्त वह्नयायुस्ते भवन्त्युदितायुषः ॥२०१॥ .