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उक्तं च प्रज्ञापना वृत्तौ
पणयाललख्ख पिहुला दुन्नि कवाडा य छ दिसिं पुट्ठा । लोगंते तेसिं तो जे तेउ तेऊ घिप्पन्ति ॥ २०६ ॥
इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में इस तरह कहा है कि- पैंतालीस लाख योजन विस्तार वाले दो कपाट की छ: दिशा में लोकांत तक कल्पना करना; उसके अन्दर जो अनिकाय जीव रहते हैं वह यहां ग्रहण करना या समझना। ( (२०६) तत उक्तम्-‘“उववाएणं दोसु कवाडे सु तिरियलोअ तट्टे या ".
और इससे ही आगम में कहा है- 'दो कपाटों के अन्दर तथा तिर्यग् लोक के तट पर उपघात रहता हैं । '
. पृथ्व्यादिषु चतुर्ष्व कपर्याप्त निश्रया मताः ! असंख्येया अपर्याप्ता जीवा वनस्पतेः पुनः || २१०॥
पर्याप्तस्य चैकैकस्य पर्याप्ता निश्रेया स्मृताः । असंख्येयाश्च संख्येया अनन्ता अपि कुत्रचित् ॥२११॥ युग्मं ।
पृथ्वी आदि चार में अर्थात् पृथ्वीकाय, अंकाय, तेऊकाय और वायुकाय
में एक पर्याप्त की निश्रायें में असंख्य अपर्याप्त होते हैं और वनस्पतिकाय में एक पर्याप्त की निश्रा में १- असंख्य, २- संख्यात् और ३- अनन्त - इस तरह से तीन प्रकार के अपर्याप्त होते हैं । (२१०-२११)
तत्र च
संख्यासंख्यास्तु पर्याप्त प्रत्येक तरुनिश्रया ।
अनन्ता एव पर्याप्त साधारण वनाश्रिताः ॥ २१२ ॥
इति बादराणां स्थानानि ॥ २ ॥ .
और इसमें भी एक पर्याप्त प्रत्येक वनस्पति की निश्रा में अपर्याप्त संख्यात और असंख्यात जितने होते हैं जबकि एक पर्याप्त साधारण वनस्पतिकाय की निश्रा में वे अनन्त होते हैं। (२१२)
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इस तरह बादर के स्थानों के विषय में विवेचन सम्पूर्ण हुआ । (२)
पर्याप्तयस्त्रिचतुरा अपर्याप्तान्य भेदतः । प्राणश्चत्वारोऽङ्गबल श्वासायूंषि त्वगिन्द्रियम् ॥२१३॥
इति पर्याप्तिः ॥३॥