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(३६०) इस तरह अग्निकाय का वर्णन हुआ। घनानिलवलयेषु घनानिलेषु सप्तसु । तनुवात वलयेषु तनुवातेषु सप्तसु ॥१८७॥ अधोलोके च पाताल कुम्भेषु भवनेषु च ।। छिद्रेषु निष्कुटेष्वेवं स्व स्थानं वायुकायिनाम् ॥१८॥ युग्मं। ..
अब बादर वायुकाय के स्थान कहते हैं- घनवायु के वलय में; सात घन-वायु में, तनुवायु के वलय में, सात तनुवायु में, अधोलोक में, पातालकुंभं के अन्दर, भवन में छिद्रों के अन्दर और निष्कुटों में वायुकाय के स्वस्थान होते हैं। (१८७-१८८)
ऊर्ध्वलोके च कल्पेषु विमानेषु तदालिषु । विमानप्रस्तट च्छिद्र निष्कु टेषु तदुद्भवः ॥१८६॥ ऊर्ध्वलोक के अन्दर, सर्वदेव लोक विमानों में और इनकी श्रेणियों में और विमानों के प्रस्तट, छिद्र और निष्कुटों में वायुकाय जीवों की उत्पत्ति होती है। (१८६)
तिर्यग्लोके दिक्षु विदिश्वधश्चोर्ध्वं च तजनिः । जगत्यादिगवाक्षेषु लोक निष्कुटकेषु च ॥१६०॥
इति वायुकाय स्थानम् ॥ , और तिर्यग्लोक में, दिशा के अन्दर तथा विदिशाओं में और नीचे तथा जगती आदि के गवाक्षों में, लोक के गृहोद्यानों में भी वायुकाय की उत्पत्ति होती है। (१६०)
इस तरह वायुकाय के भेद हुए। प्रत्येकः साधारणश्च द्विविधोऽपि वनस्पतिः । प्रायोऽप्कायसमः स्थानैः जला भावेह्यसौ कृतः ॥१६१॥ ...
___ इति वनस्पति स्थानम् ॥ अब बादर वनस्पतिकाय जीवों के स्थान के विषय में कहते हैं- जो अप्काय के स्थान हैं वही प्रत्येक और साधारण- दोनों प्रकार की वनस्पति के स्थान हैं क्योंकि जहां जल होता है वहीं वनस्पति होती है। (१६१) .