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समान उत्तम होते हैं कई कांटे वाले हैं तो कई अत्यन्त कोमल होते हैं। कई कुटिल होते हैं तो कई सरल हैं। कई कुब्ज होते हैं तो कई दीर्घ होते हैं । कईयों का वर्ण,गंध, रस, स्पर्श मनोहर होता है तो अन्यों का इससे विपरीत होता है। कई विष समान होते हैं तो अन्य विष रहित मीठे होते हैं। कई फलते हैं तो अन्य को फल आते ही नहीं हैं। कईयों का उत्पत्ति स्थान खराब स्थान है तो अन्य वृक्ष का उत्पत्ति स्थान सुन्दर उद्यान आदि है । कई दीर्घायुषी हैं तो कई शस्त्रादि से तुरन्त कटकर गिर जाते हैं। (३६ से ४२)
बिना कर्माणि नानात्वमिदं युक्ति सहं कथम् । बिना कारण नानात्वं कार्ये तद्धि न सम्भवेत् ॥४३॥
इस प्रकार विविध रूप कर्मों का सद्भाव बिना कारण कैसे हो सकता है ? नाना प्रकार के कारण बिना ऐसे कार्य संभव नहीं हो सकते। (४३)
कर्माणि च कार्यतयात्मानं कर्तारमेव हि । .. आक्षिपन्त्य विना भूताः कुलालं कलशा इव ॥४४॥
कर्म भी कार्य रूप होने से अपना कोई कर्ता है ही, इस तरह सूचना कर रहा है । घड़े का जैसे कर्त्तारूप में कुम्हार को सूचक है वैसे ही । (४४) .. वनस्पते: सात्मक त्वं स्फूटमेव प्रतीयते । .. ज़न्यादि धर्मोपेतत्वात् मनुष्यादि शरीरवत् ॥४५॥
इसलिए वनस्पति में चैतन्य है, यह स्पष्ट प्रतीति होती है क्योंकि इसमें भी मनुष्य आदि के शरीर समान जन्यादि धर्म विद्यमान हैं। (४५) ... . अनुमानं पुरस्कृत्य साधयत्यागमोऽपि च ।
वनस्पते: सचैतन्यमाचारांगे यथोदितम् ॥४६॥
तथा आगम में भी अनुमान को आगे करके वनस्पति का चेतनत्व सिद्ध करने में आया है, आचारांग सूत्र में कहा है कि । (४६) __ "इमं पि जाइ धम्मयं एयं पि जाइ धम्मयो इमं पि वुद्धिधम्मयं एयं पि बुद्धिधम्मयो इमं पि चित्तमंतयं एयं पि चित्तमंतयं। इमं पि छिन्नं मिलायइ, एयं पि छिन्नं मिलायइ।इमं पि आहारंग एवं पि आहारंग। इमं पि अणिच्चयं एवं पि अणिच्चयं। इमं पि असासयं एयं पि असासयं। इयं पि चओववइयं एयं पि चओववइया इमं पि विपरिणाम धम्मयं एवं पि विपरिणाम धम्मयं। इत्यादि॥"