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यत्र स्कन्धकंदमूल शाखासु खलु वीक्ष्यते । • त्वचा स्थूलतरा काष्ठात् सा त्वचानन्तजीविका ॥७६॥
स्कंध, कंद, मूल और शाखा की छाल मूल काष्ठ से अधिक स्थूल होती है। वह छाल अनन्तकायिक होती है ऐसा समझना। (७६) ।
येषां मूलकंद पत्र फल पुष्प त्वचां भवेत् । चक्राकारः समच्छेदो भंगेऽनन्तात्मकं हि तत् ॥८॥
तथा जो मूल, कंद, पत्र, फल, पुष्प और छाल को तोड़ने परचक्राकार समच्छेदन होता हो वह भी अनन्तकायिक जानना। (८०)
ग्रन्थिः पर्वात्मिका भंगस्थानं सामान्यतोऽथवा । रजसा छुरितं यस्य भंगेऽनन्तात्मकं हि तत् ॥१॥
अथवा सामान्यतः पर्वरूप ग्रन्थि- भंग स्थान हो, वह भंग स्थान छेदन करने से यदि अन्दर का भाग रज द्वारा आच्छादित दिखता हो तो वह भी अनन्तकाय कहलाता है। (८१).. .
केदार शुष्क तरिका पुटवद्भिद्यते चयत् । प्रागुक्त लक्षणाभावेऽप्यनन्तकायिकं हि तत् ॥२॥
इसके सिवाय क्यारी की सूखी- तड़ की पपड़ी के समान जिसका भंग होता है वह चाहे कभी पूर्व लक्षणों से रहित हो फिर भी अनन्तकाय जानना। (८२) यदागमः- चक्कांभजमाणस्स गंठी चुण्णघणो भवे ।
पुढवीसरिसभेएणअणंतजीवं वियाणाहि॥३॥ आगम में कहा है कि- तोड़ने से जिसका चक्र समान आकार हो, जिसकी गांठ पराग चूर्ण से घन-भरी हुई हो और जिसका मिट्टी के समान भंग होता हो वह अनन्तकाय समझना। (८३)
सक्षीरं वापि निःक्षीरं पत्र गूढशिरं च यत् । अलक्ष्यमाणपत्रार्द्ध द्वय सन्धि च यद् भवेत् ॥१४॥ अनन्त जीवं तत्सर्वं ज्ञेयमित्यादिलक्षणैः । बहुश्रुतेभ्योः ज्ञेयानि लक्षणा नयपराण्यपि ॥८॥युग्मं।
क्षीर वाले अथवा क्षीर बिना के, गुप्त नस वाले और जिसकी दो आधी बीच में संधि दिखती न हो ऐसे लक्षणों वाले पत्ते सभी अनन्तकायिक जानना । इसके