________________
(३७६)
इस तरह होने से जहां तक पुष्प पर फल आते हैं वहां तक पुष्पद्वार और जहां तक फल में बीज उत्पन्न होते हैं वहां तक फलद्वार है । ये सब साथ में ही पृथ्वी में रहे रस का आहार करते हैं। (१०८)
श्रावणादि चतुर्मास्यां प्रावृड् वर्षासु भूरुहः । सर्वतो बहुलाहारा अपां बाहुल्यतः स्मृताः ॥१०६॥
श्रावण आदि चार महीने की वर्षा ऋतु में पानी बहुत अधिक होने से बहुत आहार मिलता है । (१०६)
ततः शरदि हेमन्ते क्रमादत्याल्प भोजिनः । यावद्वसन्तेऽल्पाहारा ग्रीष्मेऽत्यन्त मिताशनाः ॥११०॥
उसके बाद शरद् और हेमन्त ऋतु से लेकर आखिर वसंत ऋतु तक उनको अल्प- अल्प आहार मिलता है और ग्रीष्म ऋतु में उनको बहुत थोड़ा आहार मिलता है। (११०)
यत्तु ग्रीष्मेऽपि द्रुमाः स्युर्दल पुष्प फलाद्भूताः । तदुष्ण योनि जीवानामुत्पादात्तत्र भूयसाम् ॥१११॥
इति भगवती सूत्र शतक ७ उद्देश ३॥ फिर भी ग्रीष्म ऋतु में उनके पत्ते, पुष्प और फल सुन्दर होते हैं; वह उष्ण योनि के पुष्कल-विशाल जीवों की उत्पत्ति का प्रताप ही है। (१११) ..
इस तरह श्री भगवती सूत्र में सातवें शतकं के तीसरे उद्देश में कहा है। ननु च मूलादयो दशाप्येवं यदि प्रत्येक देहिभिः । जाता अनेकैस्तत्तस्मिन्नेकमूलादिधीः कथम् ॥११२॥
कोई यहां शंका करते हैं कि- जब मूलादि दस अवयव इस प्रकार से अनेक प्रत्येक जीवों से उत्पन्न होते है तब इसे एक मूलादिक क्यों कहते हैं ? (११२)
अत्र उच्यतेश्लेषण द्रव्य संमिश्रर्घटितानेक सर्षपैः। भूरि ‘सर्षपरूपापि वर्त्तिरेकै व भासते ॥११३॥ यथा ते सर्षपाः सर्वे स्वस्वमानाः पृथक्-पृथक् । वर्तेर्बुद्धि सृजन्तोऽपि स्थिताः स्वस्वावगाहना ॥११४॥ तथा प्रत्येक जीवास्ते पृथक स्वस्ववपुर्भतः ।. सृजन्त्येकत्र मिलिता एक मूलादिवासनाम् ॥११५॥(युग्मं।)