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_इस शंका का समाधान करते हैं कि- बहुत सरसों को किसी चिकनाई वाले पदार्थ में मिश्र करके इसकी बत्ती बनाने पर यह बत्ती यद्यपि बहुत सरसों रूप होती है फिर भी वह एक ही दिखती है अर्थात् अलग-अलग अपने-अपने मान वाले वे सर्व सरसों के दाने बत्तीरूप गिने जाते हैं, फिर भी वे सब अपनेअपने अवगाहन में रहते हैं, वैसे ही ये सब प्रत्येक जीव अपना-अपना अलगअलग शरीर होने पर भी जब एकत्रित मिलते हैं तबएक मूलादि है- ऐसी बुद्धि उत्पन्न करते हैं। (११३-११५)
इह यद् द्वेष रागाभ्यां संचितं पूर्व जन्मनि । हेतुरेकत्र सम्बन्धे तत्कर्म श्लेषणोपमम् ॥११६॥ कृतैवंविध कर्माणो जीवास्ते सर्षपोपमाः ।
मूलादि वर्ति स्थानीयमिति दृष्टान्त योजना ॥११७॥(युग्मं।) । यहां पूर्व जन्म में राग-द्वेषादि से बंधन किये जो कर्म एकत्रता का हेतुभूत हैं उन्हें चिकनाई वाले पदार्थ के समान समझना, उस प्रकार के कर्मों का जिसने बन्धन किया है ऐसे जीवों को सरसों के समान समझना और मूल आदि को बत्ती के समान समझना। (११६-११७)
. तिल शष्कुलिका पिष्टमयी तिल विमिश्रिता । . अनेक तिल जातापि यथैका प्रतिभासते ॥१८॥
.. इहापि दृष्टान्त योजना प्राग्वत् ॥ तथा तिल मिश्रित शक्कर की तिलपपड़ी-तिलशकरी यद्यपि तिल के दानों से बनी होती है फिर भी वह एक जैसी वर्तन होती है। (११८)
यह दूसरा दृष्टान्त है। इसमें भी पूर्व के समान दृष्टान्त योजना करना । (अट्ठानवें श्लोक में प्रत्येक वनस्पति के बारह भेद गिनाए हैं उनमें से यह प्रथम वृक्ष का भेद इस प्रकार ६६ श्लोक से ११८ श्लोक तक में विवेचन किया है। अब उसके आगे कहते हैं
अथ गुच्छादयः . वृन्ताकी बदरी नीली तुलसी करमर्दिकाः ।
यावासाघाड निगुंडय इत्याद्या गुच्छ जातयः ॥११६॥ - अब दूसरे गुच्छ आदि भेद के विषय में विवेचन करते हैं- रीगणी, बेरी, गली, तुलसी, करमदी, जवासो, अघाड, निर्गुन्डी इत्यादि गुच्छ की जातियां हैं। (११६)