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(३५६) घृतेावारूणी दुग्धोदकं तत्तद्रसाङ्कितम् । घनोदध्यादयश्चास्य भेदा येऽन्येपि तादृशाः ॥१८॥
___इति अपकाय भेदाः॥ अब अपकाय (जल) के भेद कहते हैं- स्वाभाविक १- शुद्ध, २- शीतल, ३- ऊष्ण, ४- खारा, ५- थोड़ा खारा, ६- अति खारा, ७- खट्टा, ८- थोड़ा खट्टा, ६- अत्यन्त खट्टा, १०- हिम (बरफ) का पानी, ११- बरफ,१२- ओले, १३- कुहरे का पानी, १४- अंतरिक्ष से गिरता पानी, १५- पृथ्वी का भेदन कर तण के अग्र भाग पर रहता है वह हरत नाम का जल, १६- घी में रहा घृतवर, १७- मदिरा में रहा इक्षुवर, १८- दूध में रहा रस वाला पानी वारूणीवर और १६- क्षीरवर- समुद्र का रसयुक्त पानी, २०- धनोदधि आदिक तथा इस भेद वाले अन्य कई भेद होते हैं वे । (१६ से १८)
शुद्धाग्निरशनिाला स्फुलिंगांगार विद्युतः । अलातोल्कामुर्मुराख्या निर्घात कणकाभिधाः ॥१६॥ काष्टसंघर्ष सम्भूतः सूर्यकान्तादि सम्भवः । बह्निभेदा अमी ग्राह्या ये चान्येऽपि तथा विधाः ॥२०॥
. .. इति अग्नि भेदाः॥ . अब तेउकाय-अग्नि के भेद कहते है - १- शुद्ध अग्नि, २- वज्राग्नि, ३- ज्वालाग्नि,४- स्फुलिंग,५- अंगार,६- विद्युत्,७- अलात् अर्थात् कोलसे की आग,८- उलका, ६- तणखा, १०- निर्घात की अग्नि, ११- कणिआ की अग्नि, १२- काष्ठ के घर्षण से उत्पन्न हुई आग और १३- सूर्यकान्त आदि से उत्पन्न हई अग्नि तथा अन्य उपाय से उत्पन्न हुई ऐसी और अग्नि होती है वह। (१६-२०) ....ये अग्नि के भेद हैं।
प्राच्योदीच्य प्रतीचीन दाक्षिणात्या विदिग्भवाः । ऊर्ध्वाधः सम्भवा वाता उद्घामोत्कलिकानिलाः ॥२१॥ गुंजाझंझाख्य संवर्ता वातो मंडलिकाभिधः । घनवातस्तनुवातस्तत्रोभ्रामोऽनवस्थितः ॥२२॥
पूर्व का वायु, उत्तर का वायु, पश्चिम का वायु, दक्षिण का वायु, विदिशा का - वायु, ऊर्ध्व वायु, ऊधो वायु, उद्घाम वायु, उत्कलिक वायु, गुंज वायु, झंझा वायु,