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(३२३) उक्तं च .....पाणि वहाओ नियता हवन्ति दीहाउया अरोगाय।
. ए माइ पन्नत्ता पत्रवण वीयरायेहिं ॥१४००। अन्य स्थान में कहा है कि-' प्राणी का वध नहीं करने वाला दीर्घायुषी और रोग रहित होता है'। इत्यादि, इसे प्रज्ञापनी व्यवहार भाषा श्री वीतराग परमात्मा ने कहा है। (१४००)
षष्टी तु याचमानस्य प्रतिषेधात्मिका भेत् । सप्तमी पृच्छतः कार्यं स्वीयानुमति दानतः ॥१४०१॥ कार्य यथारभमाणः कश्चित्कंचन पृच्छति । स प्राहेदं कुरु लघु ममाप्येतन्मतं सखे ॥१४०२॥
तथा याचना करने वाले को निषेध करने रूप छठी व्यवहार भाषा है। किसी को पृछने से कार्य के लिए अनुमति देना वह सातवीं व्यवहार भाषा है, जैसे कि किसी कार्य को प्रारंभ करते समय किसी से पूछने पर वह कहे कि हे मित्र! यह — कार्य तुम जल्दी करो मेरी इसमें अनुमति है । (१४०१-१४०२) . उपस्थितेषु बहुषु कार्येषु युगपद्यदि ।
किमिदानी करोमीति कश्चित्कंचन पृच्छति ॥१४०३॥ स प्राह सुन्दरं यत्ते प्रतिभाति विधेहि तत् ।
भाषानभिगृहीताख्या सा प्रज्ञप्ता जिनेश्वरैः ॥१४०४॥ . और किसी समय एक साथ में बहुत से कार्य करने का अवसर आ जाये
तब किसी अन्य से पूछे कि अब मैं कौन सा कार्य करूँ? तब वह कहे कि तमको जो अच्छा लगे उसे करो। ऐसी भाषा बोलना उसे जिनेश्वर भगवन्त ने नभिगृहीत .. नामक आठवीं व्यवहार भाषा कहा है। (१४०३-१४०४) . अभिगृहीता तत्रेव नियतार्थावधारणम् ।
यथाधुनेदं कर्त्तव्यं न कर्तव्यमिदं पुनः ॥१४०५॥ ___ और इसी ही प्रकार के प्रश्न के उत्तर में अब तुम्हें यह कार्य करना चाहिए
और यह नहीं करना चाहिए' इत्यादि नियत अवधारणा वाली भाषा बोलता है, वह 'अभिगृहीत' व्यवहार भाषा जानना। (१४०५) . अनेकार्थ वादिनी तु भाषा संशय कारिणी ।
संशयः सिन्धवत्स्योक्तौ यथा लवणवाजिनोः ॥१४०६॥ जिसमें से अनेक अर्थ निकलते हों ऐसी भाषा संशय कारिणी व्यवहार भाषा