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मत्यज्ञान श्रुतज्ञाने सूक्ष्मैकेन्द्रिय देहिनाम् । ते अप्यत्यन्तमल्पिष्टे शेषजीवव्यपेक्षया ॥१२८॥
___ इति ज्ञानम् ॥२६॥ इन जीवों को मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान- ये दो होते हैं। और वह भी शेष जीवों की अपेक्षा से अत्यन्त अल्प होते हैं । (१२८)
यह छब्बीसवां द्वार है। __चतुषु दर्शनेष्वेषाम चक्षुर्दर्शनं भवेत् ।
उपयोगास्त्रयोऽज्ञानद्वयमेकं च दर्शनम् ॥१२६॥ निराकारोपयोगाः स्युरचक्षुर्दर्शनाश्रयात् । द्रयज्ञानतस्तु साकारोपयोगाः सूक्ष्म देहिनः ॥१३०॥
इति द्वार द्वयम् ॥२७-२८॥ __ चार दर्शन में से केवल एक अचक्षु दर्शन होता है, तथा दो अज्ञान और एक दर्शन इस तरह तीन उपयोग होते हैं। इस दर्शन के आश्रय से सूक्ष्म जीवों को निराकार उपयोग होता है, और दो अज्ञान का आश्रय लेकर उनको साकार उपयोग होता है। (१२६-१३०) . .
ये सत्ताइसवां और अट्ठाइसवां द्वार हैं। 'आहारका सदाप्येते स्युविग्रह गतिं बिना ।
तस्यां त्वनाहारका अप्येते त्रिचतुरान् क्षणान् ॥१३१॥ __ अब इन सूक्ष्म जीवों के आहार के विषय में कहते हैं- विग्रह गति के बिना वे हमेशा आहारक होते हैं और विग्रह गति में तीन अथवा चार क्षण समय आहार रहित भी होते हैं। (१३१) . एषामुत्पन्नमांत्राणामोज आहार ईरितः ।
लोमाहारस्ततो द्वेधाप्यनाभोगज एव च ॥१३२॥
उत्पन्न होने के साथ में ही उनको ओज आहार होता है और फिर लोभ आहार होता है और वह दोनों अनाभोग से होते हैं। (१३२) - सचितः स्यादचित्तः स्यादुभयात्मापि कर्हिचित् ।
आहारे चान्तरं नास्ति सदाहारर्थिनो हमी ॥१३३॥