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(३५१) अपकाय और वायुकाय-ये चार लोक प्रमाण असंख्य आकाश खंड के प्रदेश जितने है, परन्तु उसमें लोकाकाश समान असंख्य खण्ड हैं; फिर भी अग्निकाय आदि में अनुक्रम से बहुत हैं, इससे भी अधिक हैं और अधिक से अधिक हैं। इस तरह कहा है। (१३६-१३७)
पर्याप्तापर्याप्त सूक्ष्म बादरानन्त कायिका ।
चत्वारोऽपि स्युरनन्त लोकाकाशांश सम्मिताः ॥३८॥ - अयं भावः - लोकाकाश प्रदेशेषु निगोद सत्कजन्तुषु ।
प्रत्येकं स्थाप्य मानेषु पूर्यतेऽसावनन्तशः ॥१६॥ पर्याप्त और अपर्यास ऐसे सूक्ष्म तथा बादर अनन्तकाय- ये चार अनन्त लोकाकाश के प्रदेश जितने हैं। इसका भावार्थ यह है कि- लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश में निगोद के एक-एक जंतु को यदि स्थापना करने में आए तो वह लोकाकाश अनन्त बार भर जाए। (१३८-१३६)
तथपि-- बादर साधारणेभ्यः पर्याप्तेभ्यो भवन्ति हि ।
___ अपर्याप्ता बादरास्ते असंख्येय गुणाधिकाः ॥१४०॥ बादरा पर्याप्तके भ्य सूक्ष्म पर्याप्तका इमे ।
असंख्येय गुणास्तेभ्यः सूक्ष्म पर्याप्तकास्तथा ॥१४१॥ . . . इति मानम् ॥३२॥
उसमें भी बादर साधारण पर्याप्त से बादर अपर्याप्त असंख्य गुणा होते हैं और इन बादर अपर्याप्त से सूक्ष्म अपर्याप्त असंख्य गुणा हैं और इससे भी असंख्य गुणा सूक्ष्म पर्याप्त हैं। (१४०-१४१)
यह बत्तीसवां द्वार है। सूक्ष्मातेजस्कायिकाः स्युः सर्वस्तोकास्ततः क्रमात्। सूक्ष्मक्षमाम्बुमरुतो विशेषाभ्यधिकाः स्मृताः ॥१४२॥
अब इन सूक्ष्म जीवों का अघन्य अल्प बहुत्व के विषय में कहते हैं। सर्व से अल्प सूक्ष्म तेउकाय के जीव हैं और उससे विशेष- विशेष अधिक अनुक्रम से सूक्ष्म पृथ्वीकाय, अपकाय और वायुकाय हैं। (१४२) . असंख्येय लोकमान नभः खंड प्रदेशकैः ।
तुल्याः सर्वेऽप्यमीकिन्तु यथोत्तरधिकाधिकाः ॥१४३॥