________________
(३२५)
___कौन सी दिशा में कौन से जीव बहुत हैं और कौन सी दिशा में कौन से जीव अल्प हैं । इस तरह से दिशा की अपेक्षा वाला जो अल्प बहुत्व कहा है वह चौतीसवां • द्वार है। (१४१२)
प्राप्य पृथ्व्यादित्वमंगी जघन्योत्कर्षतः पुनः । कालेन यावताप्नोति तद्भावं स्यात्तदन्तरंम् ॥१४१३॥
पृथ्वीकाय आदि रूप प्राप्त करके प्राणी जघन्यतः तथा उत्कृष्टतः जितने काल में पुन: उस भाव को प्राप्त करता है वह उसका अन्तर कहलाता है, वह पैंतीसवां द्वार है। (१४१३) ". विवक्षित भवात्तुल्येऽतुल्ये च यदभवान्तरो ।
गत्वा भूयोऽपि तत्रैव यथा सम्भवमागतिः ॥१४१४॥ जघन्यादत्कर्षतश्च वाराने तावतो भवेत् । इत्यादि यत्रोच्यतेऽसौ भवसंवेध उच्यते ॥१४१५॥ युग्मं ।
विवक्षित जन्म से समान अथवा असमान जन्मान्तर में जाकर पुनः भी यथा . संभव वहां आने का हो तो जघन्य तथा उत्कृष्ट से उतनी बार होता है, इत्यादि । वह भवसंवेद्य कहलाता है और वह छत्तीसवां द्वार है। (१४१४-१४१५)
सर्वजातीय जीवानां परस्पर व्यपेक्षया । वक्ष्यते याल्पबहुता महाल्पबहु तात्र सा ॥१४१६॥
सर्व जाति के जीवों का परस्पर की अपेक्षा से जो अल्प बहुत्व होता है वह • महान अल्पबहुत्व कहलाता है। यह अन्तिम सैंतीसवां द्वार हैं। (१४१६)
भवतु सुगम द्वारैरेभिः सदागम शोभनैः ।। नगरमिव सश्रीकं जीवास्तिकाय निरूपणम् ॥
विमल मनसां चेतां सीह प्रविश्य परां मुदम् । ... दधतु विविधैरथैर्व्यक्तीकृतश्च पदे पदे ॥१४१७॥
सद आगम द्वारा शोभायमान इन द्वारों द्वारा समृद्धिवान् नगर के समान जीवन्तिकाय का निरूपण सुगम होता है और प्रत्येक पद में प्रकट किया हुआ विविध प्रकार के अर्थों से निर्मल चित्त वालों के अन्त:करण में प्रवेश करके परम हर्प दो। (१४१७)