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(३२७)
अथ चतुर्थः सर्गः द्वाराण्येवं वर्णितानि सप्तत्रिंशदिति क्रमात् । निर्दिश्यन्तेऽथ संसारि जीवेष्वमूनि तत्र च ॥१॥
ओघतो भाव्यते संसारिषु द्वार कदम्बकम् । - आदौ ततो विशेषेण प्रत्येकं भावयिष्यते ॥२॥
तीसरे सर्ग में सैंतीस द्वारों का क्रमशः वर्णन करने में आया है। अब इन द्वारों का संसारी जीवों के विषय में निर्देश करते हैं । उसमें भी प्रथम सर्व द्वारों का
ओघ से अर्थात् एक साथ निर्देश किया जायेगा और उसके बाद प्रत्येक द्वार के विशेषण का वर्णन किया जायेगा। (१-२)
द्विधा संसारिणो जीवस्त्रसस्थावर भेदतः । त्रिविधाः स्युस्त्रिभिर्वेदैर्गतिभेदैश्चतुर्विधाः ॥३॥
संसारी जीवों के दो भेद हैं- १- त्रस अर्थात् चलते-फिरते जीव और २स्थावर अर्थात् स्थिर, जो चल-फिर न सके। तथा जीव तीन प्रकार का है- स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद की अपेक्षा से जानना तथा चार प्रकार का भी जीव होता है- देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारकी भेद से चार गति होती हैं। (३) . एकद्वित्रिचतुः पंचेन्द्रिया इति च पंचधा । - षोढा काय प्रकारैः स्युभवन्त्येवं च सप्तधा ॥४॥ . . और जीव को एक से पांच तक जैसी इन्द्रिय हों वह एकेन्द्रिय, दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौन्द्रिय, पंचन्द्रिय- इस तरह पांच प्रकार के जीव कहलाते हैं। तथा काया अनुसार गिनें तो छः प्रकार के हैं । वह इस तरह- पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। (४)
एकक्षा बादराः सूक्ष्माः पंचाक्षाः संज्ञयसंजिनः ।
चत्वारोऽसी विकलाक्षस्त्रिभिः सह समन्विताः ॥५॥
तथा जीव के सात भेद भी होते हैं । वह इस तरह- १- सूक्ष्म एकेन्द्रिय, . २- बादर एकेन्द्रिय, ३- दो इन्द्रिय,४- तेइन्द्रिय,५- चउरिन्द्रय,६- संज्ञि पंचेन्द्रिय और ७- असंज्ञि पंचेन्द्रिय। (५)
चतुर्धेकन्द्रियाः सूक्ष्मान्य पर्याप्तान्य भेदतः । पंचाक्षा विकलाक्षाश्च भवन्तीत्येवमष्ट धा ॥६॥
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चतुर्धकान्द्रयाः १