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(३३६) विवक्षणीयास्ते गोलकान्तरानुप्रविष्टकाः ।। एवं गुरूपदेशेन ज्ञेया गोलक पद्धतिः ॥५३॥युग्म। .
तथा विवक्षित निगोदावगाह से अधिक निगोदांश अपने प्रदेश की हानि के कारण से इसी तरह स्थित होता है कि वह अन्य गोले के विषय में प्रविष्ट होता है, ऐसा समझना । इस गोले के विषय में गुरु महाराज के पास से विशेष रूप में समझ लेना। (५२-५३)
उक्तं हि - ततोच्चिय गोलाओं उक्कोसपयं मुइत्तु जो अणो। . होइ निगोओं तम्मिवि अन्नो निपजइ गोलो ॥५४॥ एवं निगोय मित्ते खेत्ते गोलस्स होइ निप्पत्ती । : . एवं निपजंते लोगे गोला गोला असंखिजा ॥५५॥
इत्याद्यर्थतो भगवती शतक ११ उद्देशके १०॥ इस विषय में कहा है कि- उस गोले के उत्कृष्ट पद को छोड़कर जो अन्य निगोद होते हैं उनके विषय में और एक दूसरा गोला होता है। इसी तरह निगोद प्रमाण क्षेत्र में गोले की निष्पत्ति होती है और ऐसे ही असंख्य गोले लोकाकाश में निष्पन्न होते हैं। (५४-५५)
इस तरह से भगवती सूत्र के शतक ११ उद्देश १० में कहा है। निगोदा निचिताश्चैतेऽनन्तानन्ताङ्गिभिस्तथा । निर्गच्छद्भिर्यथा नित्यं न ह्येकोऽपि स हीयते ॥५६॥ यद्व्यावहारिकाङ्गिभ्यो यावन्तो यान्ति निर्वृतिम् । निर्यान्ति तावन्तौऽनादि निगोदेभ्यः शरीरणः ॥५७॥
तथा यह निगोद अनन्त अनन्त जीवों से इस तरह ठसाठस ठंसकर भरा हुआ है कि इसमें से नित्य निकालने पर भी एक भी निगोद कम नहीं होते हैं । कारण यह है कि व्यावहारिक राशि में से जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही अनादि निगोद में से निकलते हैं। (५६-५७)
तथोक्तम्सिज्झन्ति जत्तिया किर इह संववहारासिमजाओ। इंति अणइवणस्सइमन्जाओ तत्तिआ तम्मि ॥१८॥
इति प्रज्ञापना वृत्तौ ॥