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(३४१) __ इस तरह विशेष जानकारी प्रज्ञापन सूत्र के अठारहवें पद की वृत्ति से जान लेनी चाहिए।
पुनः प्राप्ता निगोदं येऽनुभूय व्यवहारिताम् । कायः स्थितिः स्यात्सायन्ता तेषां तां वच्मि मानतः ।।१३॥ उत्सर्पिण्यवसर्पिण्य, संख्यातीताः प्रकीर्तिताः । कालतः क्षेत्रतश्चास्याः स्थितेर्मानमथ बुवे ॥१४॥
व्यवहार जानकर पुनः जो निगोद में जाता है उसकी काय स्थिति सादि सांत है। इसका मान कितना है ? इसका मान काय से असंख्यात उत्सर्पिणी-अपसर्पिणी है। अब इसका क्षेत्र से मान कहते हैं। (८३-८४)
लोकाकाशमितासंख्यखखंडानां प्रदेशकाः । एकैकस्यापहारेण हियमाणाः क्षणे क्षणे ॥१५॥ यावद्भिः काल चकैः स्युनिर्लेपा मूलतोऽपि हि । तावन्ति तानि स्यात्कायस्थितिरेषां तृतीयिका ॥८६॥युग्मं।
लोकाकाश के समान असंख्य आकाश खंड के प्रदेश हैं । उनमें से प्रत्येक क्षण में एक-एक प्रदेश लेने जाये तो जितने काल चक्रों में ये प्रदेश मूल में से उखड़ जायें उतने काल चक्र तक इसकी कार्य स्थिति रहती है । वह काय स्थिति तीसरा सादि सांत है। (८५-८६). . ... काल चक्राण्य संख्यानि भवन्त्येतानि संख्यया । ..कालतो हि सूक्ष्मतरं क्षेत्रमाहु जिनेश्वराः ॥८७॥ .
· यतोऽगुलमिताकाश श्रेण्या अध्र प्रदेशकाः । __ गण्यमानाः समानाः स्युरसंख्योत्सर्पिणी क्षणैः ॥८॥
यह काल चक्र असंख्य हैं क्योंकि जिनेश्वर भगवन्त ने क्षेत्र को काल से सूक्ष्म कहा है क्योंकि अंगुली प्रमाण आकाश श्रेणी के आकाश प्रदेशों की गिनती करे तो असंख्य उत्सर्पिणी के क्षणों के समान होते हैं। (८७-८८)
यदाहु- सुहुमो य होइ कालो ततो सुहुमयरं हवइखित्तम् । __ अंगुल सेढी मित्ते ओसप्पिणिओ असंखिजा ॥६॥ .. अन्य स्थान पर कहा है कि- सूक्ष्म काल से भी अधिक सूक्ष्म क्षेत्र है, इससे अंगुल प्रमाण आकाश श्रेणी में असंख्य उत्सर्पिणी काल होते हैं। (८६)