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(३३४) गोलक प्ररूपण चैवम्षड्दिशं यत्र लोकः स्यात्तत्र सम्पूर्ण गोलकः । निष्पद्यते तन्मध्ये च स्यादुत्कष्टपदं खलु ॥३६॥
इन गोलों का कथन इस प्रकार है- लोकाकाश जहां है उस दिशा में सम्पूर्ण गोला होता है और इसके अन्दर उत्कष्ट पद निष्पन्न होता हैं। (३६).
भूम्यासन्नापवरक कोणान्तिम प्रदेशकम् । देशोऽनुकुर्यात् त्रिदिशमलोकावरणेन यः ॥४०॥ . तत्र खंडस्य गोलस्य निष्पतिः सकलस्य न । स्याजघन्यपदं तस्मिन् स्पष्टमल्पैर्निगोदकैः ॥४१॥युग्मं। . .
और जो देश का तीन दिशाओं में अलोक का आवरण होता है उससे पृथ्वी के लगोलग-लगी हुई अपवरक अर्थात् कमरे के कोने के अन्तिम प्रदेश के समान होती है, वहां सम्पूर्ण गोलाकार नहीं होती.वरन् खण्ड गोलाकार-अधूरा गोलाकार होता है और इसके अन्दर निगोद भी कम होने से देखने रूप में जघन्य पद होता है। (४०-४१)
लोकान्तर्यत्र कुत्रापि संस्थितः स्यानिगोदकः । एकोगुलासंख्य भागमित क्षेत्रावगाहनः ॥४२॥
इस लोकाकाश में प्रत्येक स्थान पर जहां- जहां निगोद होता है वहां- वहां एक अंगुल के असंख्यवें भाग का प्रमाण क्षेत्र अवगाहन रूप में होता है। (४३)
अन्येऽपि तत्रासंख्येयास्तावन्मात्रावगाहनाः । अन्योऽन्यानुप्रवेशन स्थितास्सन्ति निगोदकाः ॥४३॥
और इसके अन्दर उतनी ही अवगाहना वाले असंख्य निगोद एक दूसरे में प्रवेश करके रहे हैं। (४३)
तत्रान्यापेक्षया प्राज्यैः स्पष्टं जीव प्रदेशकैः । विवक्षणीयमुत्कृष्ट पदमेक प्रदेशकम् ॥४४॥
वहां जीव प्रदेश अन्य की अपेक्षा से अधिक होने से एक प्रदेश वाला उत्कृष्ट पद होता है, वह स्पष्ट दिखता है। (४४)
तस्यामेव निगोदावगाहनायां समन्ततः । अन्ये निगोदास्तिष्ठन्ति प्रदेश वृद्धि हानितः ॥४५॥