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(३३२)
वनस्पति काय के प्रत्येक और साधारण दो भेद होते हैं । प्रत्येक वनस्पति काय के सिवाय पांच स्थावर सूक्ष्म और बादर दो होते हैं। (२७)
एकादशै केन्द्रियास्युरेव प्रत्येक संयुताः । अपर्याप्ताश्च पर्याप्ता एवं द्वाविंशतिः कृताः ॥२८॥
इस कारण से दस भेद होते हैं । इसमें प्रत्येक को संयुक्त करते - मिलाते एकेन्द्रिय के ग्यारह भेद होते हैं तथा पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं तब ११×२. = बाइस भेद होते हैं। (२८)
२२
॥२६॥
तत्र क्ष्माम्भोऽग्निपवनाः साधारण वनस्पतिः I एतेऽपर्याप्त पर्याप्ता दशैवं सूक्ष्म देहिनः इसमें पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वाउकाय, और साधारण वनस्पति काय -ये पांच पर्याप्त और अपर्याप्त होने से सूक्ष्म एकेन्द्रिय के ५x२= १०. दस भेद होते हैं। (२६)
सूक्ष्मा नामकर्म योगाद्ये प्राप्ताः सूक्ष्मतामिह । चर्मचक्षुरगम्यास्ते सूक्ष्माः पृथ्व्यादयः स्मृताः ॥३०॥
सूक्ष्म नामकर्म के योग से जो सूक्ष्म रूप प्राप्त करते हैं. और चर्मचक्षु के लिए
अगम्य हैं; वे सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अपकाय आदि हैं। (३०)
सूक्ष्माः साधारण वनस्पतयो येऽत्र शंसिताः ।
ते च सूक्ष्म निगोदा इत्युच्यन्ते श्रुत कोविदैः, ॥३१॥
जिसे यहां सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय कहा है उसे सिद्धान्त वादियों ने सूक्ष्म निगोद के जीव कहा है । (३१)
अनन्तानामसुमतामेक सूक्ष्म निगोदिनाम् ।
साधारणं शरीरं यत् स निगोद इति स्मृतः ॥३२॥
एक सूक्ष्म निगोद वाले अनन्त जीवों का जो साधारण शरीर होता है उसका नाम निगोद है। (३२)
तच्चैकं सर्वतद्वासिसम्बन्धिस्तिबुकाकृति ।
औदारिकं स्यात्प्रत्येकं त्वेषां तैजस कार्मणे ॥३३॥
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वह साधारण अर्थात् औदारिक शरीरस्तिबुक जैसी आकृति वाला होता है, उसमें रहे सर्व जीवों के साथ में सम्बद्ध होता है और वह एक ही है। जबकि तैजस और कार्मण शरीर तो सबमें अलग होता है। (३३)