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. यह मत सिद्धान्तियों का है। कर्म ग्रंथ वालों ने तो औदारिक का अनुक्रम से वैक्रिय और आहारक के साथ में मिश्रत्व है- इस तरह समझाया है वे उन्होंने वैक्रिय के आरंम्भ समय में और परित्याग में भी वैक्रिय के साथ में मिश्रत्व मानते हैं। आहारक के सम्बन्ध में भी इसी तरह कहते हैं। (१३२२-१३२३)
वैक्रिय देह पर्याप्तया पर्याप्तस्य शरीरिणः । वैक्रियः काययोगः स्यात्तन्मिश्रस्तु द्विधा भवेत् ॥१३२४॥
वैक्रिय शरीर पर्याप्ति वाले जीव को वैक्रिय काया का योग होता है। इनका दो प्रकार का मिश्र होता है । (१३२४)
यो पर्याप्त दशायां स्यान्मिश्रो नारक नाकिनाम् । योगः समं कार्मणेन स स्याद्वैक्रिय मिश्रकः ॥१३२५॥
अपर्याप्त दशा में नारकी और देवों का जो मिश्रत्व है वह प्रथम कार्मण वैक्रिय मिश्र योग होता है । (१३२५)
तथा यदा मनुष्यो वा तिर्यक् पंचेन्द्रियोऽथवा । वायुः वा वैक्रियं कृत्वा कृत कार्योऽथ तत्त्य जन् १३२६।।
औदारिक शरीरान्तः प्रवेष्टुं यतते तदा । . योगो वैक्रिय मिश्रः स्यात्सममौदारिकेण च ॥१३२७॥ युग्मं ।
और उसी प्रकार मनुष्य अथवा तिर्यंच पंचेन्द्रिय अथवा वायु वैक्रिय . करके और वह सम्पूर्ण करके, उसे परित्याग करके जब औदारिक शरीर में प्रवेश करने का प्रयत्न करता है तब दूसरा औदारिक वैक्रिय मिश्र योग होता है । (१३२६-१३२७)
मिश्रीभावो यदप्यत्रो भयनिष्टस्तथाप्यसौ । प्रधान्याद्वैकियेणैव ख्यातो नौदारिकेण तु ॥१३२८॥
यहां भी मिश्रत्व दोनों में समान है फिर भी वैक्रिय की प्रधानता को लेकर यह वैक्रिय के साथ में औदारिक का योग कहलाता है, न कि औदारिक के साथ में वैक्रिय का योग है। (१३२८)
प्राधान्यं तु वैकियस्य प्राज्ञेर्निरूपितं ततः ।
औदारिक तु प्रवेश एतस्यैव बलेन यत् ॥१३२६॥
तथा प्राज्ञ पुरुषों ने भी वैक्रिय का प्रधानत्व मान किया है क्योंकि इसके ही बल से औदारिक में प्रवेश हो सकता है। (१३२६)