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आहारकांग पर्याप्त्या पर्याप्तानां शरीरिणाम् । आहारकः काययोगः स्याच्चतुर्दश पूर्विणाम् ॥१३३०॥ आहारक वपुः कृत्वा कृत कार्यस्य तत्पुनः । त्यक्त्वा स्वांगे प्रविशतः स्यादाहारकमिश्रकः ॥१३३१॥
आहारक शरीर की पर्याप्ति जिसकी पूर्ण रूप हुई हो उन चौदह पूर्वधर महात्माओं को आहारक काय योग होता है। वैसे आहारक शरीर से कृतार्थ बने · उन महात्माओं को यह शरीर छोड़कर अपने शरीर में प्रवेश करने से आहारक मिश्र काय योग होता है । (१३३० - १३३१)
द्वयोः समेऽपि मिश्रत्वे बले नाहारकस्य यत् । औदारिके ऽनुप्रवेशस्ते नेत्थं व्यपदिश्यते ॥ १३३२॥
यहां भी दोनों का मिश्रत्व समान है तो इस आहार के बल से ही औदारिक में प्रवेश हो सकता है। इससे आहारक के साथ में मिश्रत्व कहलाता है। (१३३२)
तैजसं कार्मणं चेति द्वे सदा सहचारिणी ।
ततो विवक्षित. सैको योगस्तैजस कार्मणः ॥१३३३॥
जन्तूनां विग्रह गता वयं केवलिनां पुनः । समुद्घाते समयेषु स्यात्तृतीर्यादिषु त्रिषु ॥१३३४॥
तथा तैजस शरीर और कार्मण शरीर इन दोनों के निरन्तर सहचारत्व के कारण तैजस कार्मण इस तरह एकत्रित ही एक काय योग कहा है। यह तैजस कर्मणका योग प्राणियों को विग्रह गति में होता है और केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें - इस तरह तीन समय में होता है । (१३३२-१३३४)
एवं निरूपिताः सम योगाः काय समुद्भवाः । अथ चितवचो जातांश्चतुरश्चतुरो बुवे ॥१३३५॥
इस तरह सात काय योग में समझ दी है। अब मन और वचन के चारचार योग के विषय में कुछ कहते हैं। (१३३५)
सत्यो मृषा सत्यमृषा न सत्यो न मृषाऽपि च । मनोयोगश्चतुधैवं वाग्यो गो ऽप्येवमेव च ॥१३३६॥
१ - सत्य, २- मृषा, ३- सत्यमृषा, ४- न सत्य न मृषा; इस तरह चार प्रकार का मनोयोग है । वचन योग के भी इसी प्रकार से चार भेद होते हैं । (१३३६ )