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(३१५) इस विषय में आवश्यक सूत्र की वृहद्वृत्ति में कहा है कि- 'प्राणी भाषा के पुद्गलों को काययोग से ग्रहण करता है और वचनयोग से छोड़ता है।'
अत्र कश्चिदाह- "तत्र कायिकेन गृह्णाति इति एतद् युक्तम् तस्य आत्म व्यापार रूपत्वात्। निसृजति तु कथं वाचिकेन कोऽयं वाग्योग इति। किं वागेव व्यापारापन्ना आहोस्वित् तद्विसर्ग हेतुः काय संरम्भ इति । यदि पूर्वः विकल्पः स खलु अयुक्तः तस्या योगत्वानुपपत्तेः । तथा च न वाक्केवला जीव व्यापारः तस्याः पुद्गल मात्र परिणाम रूपत्वात् रसादिवत् । योगश्च आत्मनः शरीरवतः व्यापार इति । न च तया भाषा निसृज्यते किन्तु सैव निसृज्यते इति उक्तम् । अथ द्वितीयः पक्षः। ततः स काय व्यापारः एव इति कृत्वा कायिके नैव निसृजति इति आपन्नं अनिष्टं च
एतत् ॥" .
यहां कोई शंका करता है कि काययोग से ग्रहण करता है- इस तरह कहना है वह तो योग्य है क्योंकि वह आत्म व्यापार है। परन्तु वचनयोग से छोड़ता है' यह किस तरह है ? और यह वचनयोग क्या है ? क्या वाणी का व्यापार ही वचन योग है अथवा इसे छोड़ने में हेतुभूत कायसंरंभ है ? यदि प्रथम विकल्प स्वीकार करते हो तो वह अयुक्त है क्योंकि इस वाणी के योगत्व की अनुपपत्ति है व मात्र वाणी ही अकेला जीव का व्यापार नहीं है। क्योंकि यह तो रस आदि के समान पुद्गल मात्र का परिणाम रूप है और जो योग है वह तो शरीर आत्मा का व्यापार है तथा उससे भाषा छोड़ता नहीं है, भाषा स्वयं ही छूटती है। अब यदि दूसरा विकल्प स्वीकार . करोगे तो वह काया व्यापार ही है। इस कारण से कायायोग से ही छोड़ता है। इस तरह निष्पन्न होता है- जो तुमको इष्ट नहीं है।' - अत्र उच्यते- "न । अभिप्राया परिज्ञानात् । इह तनुयोग विशेष एव वाग्योगो मनोयोगश्च इति काय व्यापार शून्यस्य सिद्धवत् तदभावात् । ततश्च आत्मनः शरीर व्यापारे सति येन शब्द द्रव्योपादानं करोति स कायिकः । येन तु काय संरम्भेण नान्येव मुंचति स वाचिक इति । तथा येन मनो द्रव्याणि मन्यते स मानस इति । काय व्यापारः एव अयं व्यवहारार्थ त्रिधा विभक्तः इति अत: अदोषः।।" - अब शंका का समाधान करते हैं कि- "यह इस तरह नहीं है क्योंकि तुम अभिप्राय समझते नहीं हो। वचनयोग और मनोयोग ये दोनों एक प्रकार का कायायोग ही हैं क्योंकि काया व्यापार रहित को सिद्धि के समान इनका अभाव है। इससे आत्मा का शरीर व्यापार होने पर भी जिससे शब्द द्रव्य का उपादान करता है वह काययोग है और जो काय संरंभ के कारण शब्द द्रव्य को छोड़ता है वह