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वह इस तरह- गाय की याचना करना है, इत्यादि संकल्प यदि दंभपूर्वक किया हो तो उसका असत्य में समावेश होता है परन्तु वह स्वाभाविक रूप में किया हो तो उसका समावेश सत्य में होता है। (१३५०)
सर्वमेतद् भावनीयं वाग्योगेऽप्य विशेषतः । भाविताश्चिन्तने भेदा भाव्यास्तेऽत्र तु जल्पने ॥१३५१।।
जिस तरह इस मनोयोग का स्वरूप कहा है उसी के अनुसार वचनंयोग का स्वरूप जानना चाहिए । पहले में चिन्तन रूप भेद कहा है और यहां इसमें मुख से कथन रूप में लेना चाहिए । (१३५१)
एवं मनोवचोयोगाः स्युः प्रत्येकं चतुर्विधाः । ततो योगाः पंचदश व्यवहारनयाश्रयात् ॥१३५२॥
इस तरह मन और वचन योग के प्रत्येक चार-चार भेद हुए और इससे सर्व मिलकर व्यवहार नम की अपेक्षा से पंद्रह योग होते हैं। (१३५२) ।
किमु कश्चिद्विशेषोऽस्ति भाषावाग्योगयोर्गनु ।
भाषाधिकारो यत्प्रोक्तः सूत्रे वाग्योगतः पृथक् ॥१३५३॥
यह ऐसा प्रश्न होता है कि वचन योग और भाषा इन दो में क्या कुछ अन्तर है? सूत्र में भाषाधिकार को वचनयोग से अलग वर्णन किया है । (१३५३) अत्रोच्यते....युज्यते इति योगः स्यादिति व्युत्पत्तियोगतः ।
भाषाप्रवर्तको जन्तुयलो वाग्योग उच्यते ॥१३५४॥ इसका समाधान इस तरह करते हैं- युज्यते इति योगः, इस तरह योग शब्द की व्युत्पत्ति होती है । इससे जन्तु का भाषा प्रवर्तन का प्रयत्न वाक्योग कहलाता है (१३५४)
भाषात्वेनापादिता या भार्षाहद्रव्यसंततिः । सा भाषा स्यादतो भेदो भाषावाग्योगयोः स्फुटः ॥१३५५॥
तथा भाषा के योग्य द्रव्यों में से भाषात्व गुण वाली जो बताया जाता है वह भाषा कहलाती है, इस तरह होने से भाषा और वाग्योग-वचनयोग में स्फूट (फुटकर) भेद ही है। (१३५५)
तथोक्तम् आवश्यक वृहवृत्तौ- "गिण्हइय काइ एणं निसिरइ तह वाइएण जोगेणंति ॥"