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सकलक्षपक श्चाथ विधाय सप्तक क्षयम् । क्षयं नयेत् स्वर्नरकतिर्यगायूंष्यतः परम् ॥१२२७॥ प्रत्याख्याना प्रत्याख्यानाष्टकमन्तयेत् गुणे नवमे । तस्मिन्नर्द्धक्षपिते क्षपयेदिति षोडश प्रकृतीः ॥१२२८॥
जो सकल क्षपक होता है वह प्राणी तो इस सप्तक का अन्त लाकर स्वर्ग. नरक, तिर्यंच का आयुष्य का क्षय करता है और उसके बाद चार प्रत्याख्यान और चार अप्रत्याख्यान- इन आठ कषायों और नौवें गुण स्थानक का क्षय करता है और वह आठवें से अर्ध खपा जाती हैं अतः पहले कही सोलह प्रकृतियां भी खत्म हो जाती हैं । (१२२७-१२२८)
तिर्यग् नरकस्थावर युगलान्युद्योतमातपं चैव । स्त्यानर्द्धित्रय साधारण विकलैकाक्ष जातीश्च ॥१२२६॥ ..
तिर्यंच, नरक और स्थावर प्रत्येक दो-दो अर्थात कल छ:. उद्यात और आतप यह प्रत्येक नाम कर्म, एक-एक स्त्यन द्धित्रिक (तीन), साधारण नामकर्म एक, विकलेन्द्रिय तीन और एकेन्द्रिय एक इस तरह सब मिलाकर सोलह होते हैं। (१२२६) __'अत्र तिर्यग् युगलं तिर्यग्गति तिर्यंगानुपूर्वी रूपम् । नरक युगलं नरक गति नरकानुपूर्वीरूपम् । स्थावर युगलं स्थावर सूक्ष्माख्यम्। इति ज्ञेयम् ॥'
यहां तीन को दो-दो कहा है- वह १- तिर्यंच गति और तिर्यंच अनुपूर्वी ये दो, २- नरक गति और नरक अनुपूर्वी ये दो, ३- स्थांवर और सूक्ष्म नाम कर्म ये दो भेद हैं, उसे समझना।
. अर्धदग्धेन्धनो वह्निर्दहे त्प्राप्येन्धनान्तरम । क्षपकोऽपि तथा त्रान्तः क्षपयेत्प्रकृतीः पराः ॥१२३०॥
जिस तरह अग्नि एक काष्ट को आधा दग्ध कर प्रायः अन्य काष्ठ में पहँचता है, इसे भी जलाता है । इसी तरह क्षपक मुनि भी इसके बीच में अन्य प्रकृतियों को खत्म करता है । (१२३०)
कषायाष्टकशेषं च क्षपयित्वान्तयेत् क्रमात् । क्लीब स्त्री वेद हास्यादि षट्क पूरूष वेद कान् ॥१२३१॥
तथा आठ कषाय के शेष रहे अर्ध भाग को खत्म कर फिर अनुक्रम से नपुंसक वेद, स्त्री वेद, हास्य आदि छ: और अन्त में पुरुष वेद को खत्म करते हैं। ' (१२३१/