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प्रथम, दूसरा और चौथा गुण स्थान परलोक में प्राणी के पीछे साथ चलता है और मिश्र देश विरति आदि और शेष ग्यारहवें गुण स्थानक को परलोक में जाते समय प्राणी यहीं ही छोड़कर जाता है । ( १२७७ - १२७८)
तत्र मिश्रे स्थितः प्राणी मृतिं नैवाधिगच्छति । स्युर्देशविरतादीनि यावज्जीवावधीनि च ।।१२७६॥ यत्तृतीयं गुण स्थानं द्वादशं च त्रयोदशम् । विनान्येष्वेका कादशसु गुणेषु म्रियतेऽसुमान् ॥१२८० ॥ और मिश्र गुण स्थानक में रहकर प्राणी मृत्यु प्राप्त करता ही नहीं है; और देश विरति आदि गुण स्थान तो अन्तिम जीवन तक होते हैं। क्योंकि जैसे तीसरे मिश्र गुण स्थानक में रहकर प्राणी मृत्यु प्राप्त नहीं करता वैसे ही बारहवें ओर तेरहवें गुण स्थानक में रहकर भी मृत्यु प्राप्त नहीं करता । कहने का मतलब यह है कि इन तीन के बिना, शेष ग्यारह गुण स्थान में रहकर ही प्राणी मृत्यु प्राप्त कर सकता है । (१२७६-१२८०)
स्ताका एकदश गुण स्थिता उत्कर्षतोऽपि यत् ।
चतुः पंचाशदेवामी युगपत् सम्भवन्ति हि ॥१२८१ ॥
ग्यारहवें गुण स्थानक में सर्व से अल्प प्राणी हैं क्योंकि एक समय में उत्कृष्टत: भी चौवन ही होते हैं। (१२८१)
तेभ्यः संख्यगुणाः क्षीण मोहास्ते ह्यष्टयुक- शतम् । युगपत्स्रष्टमादि त्रिगुणस्थास्ततोऽधिकाः ॥१२८२ ॥ मिथस्तुल्याश्च यच्छ्रेणि द्वयस्था अपि संगताः । स्युद्वषष्टयुत्तरशतं प्रत्येकं त्रिषु तेषु ते ॥१२८३ ॥
इस तरह करते संख्यात गुना क्षीण मोह गुण स्थ क में होते हैं, वे एक समय में एक सौ आठ होते हैं । इससे अधिक आठवें, नौवें और दसवें गुण स्थानक में होते हैं और ये तीनों परस्पर बराबर हैं। क्योंकि प्रत्येक दोनों श्रेणियों को एकत्रित करने भी एक सौ बहत्तर होती हैं । ( १२८२ - १२८३)
योग्य प्रमत्ताप्रमत्तास्तेभ्यः संख्य गुणाः क्रमात् ।
यत्ते मिताः कोटि कोटि शतकोटि सहस्त्रकैः ॥१२८४ ॥
तथा योगी प्रमत्त और अप्रमत्त गुण स्थानों से ऊपर करते संख्यात गुना होते है और वे करोड़, सौ करोड़ और हजार करोड़ होते हैं । (१२८४)