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(३०६)
यन्नि दिष्टं जिनाधीशैरेक जीवव्यपेक्षया । त्यक्वा पुनः प्राप्ति रूपमथैषामुच्यतेऽन्तरम् ॥१२६७॥
यहां जिनेश्वर भगवन्त ने जो कहा है वह एक जीव की अपेक्षा से कहा है, वह प्राप्ति रूप त्याग को कहा है। अब इन गुण स्थानों के अन्तर के विषय में कहते हैं। (१२६७)
जघन्यं सासादनस्य पल्या संख्यांश संमितम् । शेषेषु च दशानां स्यादन्तर्मुहूर्तमन्तरम् ॥१२६८॥...
सास्वादन का अन्तर जघन्यतः एक पल्योपम के असंख्यात अंश के जितना है और शेष तेरह में से दस गुण स्थानों का अन्तर अन्तर्मुहूर्त का है । (१२६८)
मिथ्यात्वस्य तदुत्कृष्टं द्विः षट्षष्टिः पयोधयः । ...... साधिका कथितास्तत्र श्रूयतां भावनात्वियम् ॥१२६६॥
मिथ्यात्व गुण स्थान का अन्तर उत्कृष्टत: एक सौ बत्तीस सागरोपम से कुछ अधिक है, वह इस प्रकार भावना सुनी जाती है । (१२६६)
अनुभूय स्थिति कश्चित् सम्यक्त्वस्य गरीयसीम् । मिश्रं ततोऽन्तर्मुहूर्तमनुभूय ततः पुनः ॥१३००॥ षट्पष्टयम्भोनिधिमितां सम्यक्त्वस्य गुरु स्थितिम् । समाप्त कोऽपिमिथ्यात्वं जातुयति सदाहि तत् ॥१३०१॥ युग्मं । .
कोई प्राणी सम्यक्त्व की उत्कष्ट स्थिति अनुभव करके फिर अन्तर्मुहूर्त तक मिश्र गुणस्थानक का अनुभव कर पुनः छियासठ सागरोपम सकित की उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण करके जब मिथ्यात्व गुण स्थान में आ जाता है तब पूर्व कहे अनुसार वह मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर होता है। (१३००-१३०१) ,
देशोन पुद्गल परावर्तार्द्ध प्रमितं मतम् । द्वितीयादीनां दशानां गुणानां ज्येष्टमन्तरम् ।।१३०२॥
दूसरे गुण स्थान से लेकर दस गुण स्थान तक अर्थात् ग्यारह गुण स्थान का अन्तर उत्कृष्ट अर्ध पुद्गल परावर्त से कुछ कम है । (१३०२)
क्षपकस्यान्तरं जातु न स्यात् त्रिष्वष्टमादिषु । सकृत्प्राप्तेः क्षीण मोहादि त्रयेऽप्यन्तरं न हि ॥१३०३॥
इति गुणाः ॥३०॥