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क्षपक मुनि मोह सागर पार कर उसी तरह अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेते हैं, जिस तरह समुद्र पारकर कोई पुरुष दो घड़ी विश्राम लेता है । (१२३६)
गतोऽथ द्वादशे क्षीण काषायाख्ये गुणेऽसुमान् । निद्रां च प्रचलां चास्यान्तयेदन्त्यादिमक्षणे ॥१२३७॥
इस प्रकार से क्षीण कषाय नामक बारहवें गुण स्थानक में पहुंच कर प्राणी इसके पहले क्षण में निद्रा और प्रचला का नाश करते हैं। (१२३७) ___ पंचज्ञानावरणानि चतस्त्रो दर्शनावृतीः । ........
पंचविजांश्च क्षणेऽन्त्ये क्षपयित्वा जिनो भवेत् ॥१२३८॥
और अन्तिम समय में पांच ज्ञान आवरण, चार दर्शन के आवरण तथा पांच अन्तराय - इस तरह कुल चौदह कर्म-प्रकृति खत्म कर जिन होते हैं। (१२३८) एवं च..... अष्ट चत्वारिंशदाढयं शतं प्रकृतयोऽत्र याः। . .
. सत्तायामभवंस्तासु षट् चत्वारिंशतः क्षयात् ॥१२३६॥ द्वयाढय शतं प्रकृतयोऽवशिष्ठा दशमे गुणे । क्षीण मोहद्वि चरम क्षणावध्येकयुक् शतम् ॥१२४०॥ युग्मं। सत्तायां नव नवतिः क्षीणमोहान्तिमक्षणे ।. चतुर्दशक्षयादत्र पंचाशीतिः सयो गिनि ॥१२४१॥ ततोऽयोगि द्वि चरमक्षणे द्वा सप्तति क्षयः । अयोगिनः क्षणेऽन्त्ये च शेष त्रयोदश क्षयः ॥१२४२॥
इस तरह जो १४८ प्रकृतियां सत्ता में थीं उनमें से ४६ का क्षय होने से १०२ प्रकृतियां दसवें गुण स्थानक में अवशेष रह जाती हैं और उनमें से लोभ प्रकृति का क्षय होने से क्षीण मोह नामक बारहवें गुण स्थानक के दो अन्तिम समय तक १०१ अवशेष रह जाती हैं। उनमें से भी निद्रा और प्रचला नाम से क्षीण मोह के अन्तिम क्षण में६६ अवशेष रहती हैं । उनमें से उक्त १४ का क्षय होने से सयोगी केवली गुण स्थान में८५ सत्ता में रह जाती हैं । उसके बाद फिर अयोगी गुण स्थान में अन्तिम दा समय में ७२ प्रकृतियों का क्षय होता है और जो १३ अवशेष रह जाती है उनका अयोगी को एक साथ अन्तिम समय में क्षय होता है। (१२३६ १२४२)
अत्र भाष्यम्आवरणख्खयसमये निच्छइय नयस्स केवलुप्पत्ती। तत्तोणंतर समये ववहारो के वलं भणइ ॥१२४३॥
इति द्वादशम् ।