________________
(२६८) इस तरह से केवली को भी मन का, वचन का और काया का योग होता है। गमनागमन आदि में कायिक योग होता है, उपदेश आदि करते समय वचन योग होता है और नीचे आई परिस्थिति में मनोयोग होता है। (१२४६-१२५०)
मनः पर्यायवद्भिर्वा देवैर्वानुत्तरादिभिः । पृष्ट स्य मनसार्थस्य कुर्वतां मनसोत्तरम् ॥१२५१।।
मनः पर्यव ज्ञान वालों से अथवा अनुत्तर आदि देवों से मन द्वारा पूछे गये प्रश्नों का मन द्वारा ही उत्तर देते हैं, वह मनयोग है । (१२५१) . ..
द्विचत्वारिंशतः कर्मप्रकृतीनामिहोदयः । . जिनेन्द्रस्यापरस्यैक चत्वारिंशत एव च ॥१२५२॥. .
यहां अर्थात् इस तेरहवें गुण स्थान में जिनेश्वर भगवान् को बयालीस कर्म प्रकृति उदय होती हैं और इनके बिना - केवली को इकतालीस कर्म प्रकृतियों का उदय होता है । (१२५२)
औदारिकांगोपांगे च शुभान्यरवगतिद्वयम् । अस्थिरं चाशुभं चेति प्रत्येकं च स्थिरं शुभम् ॥१२५३॥ संस्थान षट कम गुरु लघूपघातमेव च । पराघातोच्छवास वर्ण गन्ध स्पर्श रसा इति ॥१२५४॥ निर्माणाद्यसंहनने देहे तैजस कार्मणे । असात सातान्यतरत् तथा सुस्वर दुःस्वरें ॥१२५५।। एतासां त्रिंशतः कर्म प्रकृतीनां त्रयोदशे । गुणस्थाने व्यवच्छेद उदयापेक्षया भवेत् ॥१२५६।।
- कलापकम्। इसमें से औदारिक अंग और उपांग, शुभ और अशुभ - इस तरहं दो आकाश गति अस्थिर, स्थिर, अशुभ, शुभ और प्रत्येक - ये पांच नाम कर्म, छः संस्थान; अगुरु लघु, उपघात, पराघात और उच्छवास- ये चार नाम कर्म; वर्ण, गंध, स्पर्श, रस, निर्माण नाम कर्म, आद्य संघयण; तैजस और कार्मण ये दो देह; असाता और साता वेदनीय - इन दो में से एक; तथा सुस्वर और दुःस्वर- ये दो नाम कर्म; इस तरह की तीस कर्म प्रकृतियों का तेरहवें गुण स्थान में उदय की अपेक्षा से व्यवच्छेद होता है । (१२५३ से १२५६)