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(२६२) . जिसके कषाय क्षीण हुए हो वह क्षीण कषाय कहलाता है, यदि वह छद्मस्थ वीतराग हो तो उसका गुणस्थान 'क्षीण कषाय छद्मस्थ वीतराग' नामक है। यह गुणस्थान मानों केवल ज्ञान रूपी नगर का परिचय देने वाला या प्रवेश दरवाजा होइस तरह है । (१२१६-१२१७) तत्र..... श्रेष्ठ संहननो वर्षाष्टकाधिकवया नरः ।।
सद् ध्यानः क्षपक श्रेणिमप्रमादः प्रपद्यते ॥१२१८॥ श्रेष्ठ संघयण वाला और आठ वर्ष से अधिक वय का मनुष्य अप्रमत्त रूप सध्यान करते हुए क्षपक प्रारंभ करता है । (१२१८)
तथोक्त कर्मग्रन्थ लघुवृत्तौ- "क्षपक श्रेणि प्रतिपन्नः मनुष्यः वर्षाष्ट - कोपरिवर्ती अविरतादीनां अन्यतमः अत्यतमः अत्यन्त शुद्ध परिणामः उत्तम संहननः तत्र पूर्वविद् अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतोऽपि केचन धर्मध्यानोपगतः इत्याहुः॥"
'कर्मग्रंथ की लघु वृत्ति में कहा है कि क्षपक श्रेणि प्रारम्भ करने वाला जो मनुष्य आठ वर्ष से अधिक हो वह अविरंति, देश विरतिं प्रमत्त, अप्रमत्त - इन चार में से किसी एक गुण स्थान में रहता है। जो अत्यन्त शुद्धि परिणामी हो, उत्तम संघयण वाला हो, पूर्व से ही ज्ञान वाला हो, अप्रमत्त हो और शुक्लध्यांनोपगत अथवा कईयों के मतानुसार धर्मध्यानोपगत हो वही होता है।' .
"विशेषावश्यक वृत्तौ च पूर्वधरः अप्रमत्तः शुक्लध्यानोपगतः अपि एतां प्रतिपद्यते शेषास्तु अविरतादयः धर्मध्यांनोपगता इति निर्णयः।।"
विशेषावश्यक वृत्ति के अनुसार 'पूर्वधर और अप्रमत्त संयमी शुक्ल ध्यान में रहकर भी क्षपक श्रेणि में जाता है, दूसरे अर्थात् अविरति आदि धर्मध्यान में रहकर क्षपक श्रेणि प्राप्त करते हैं।'
तत्क्रमश्वायम्स तुर्यादि गुण स्थान चतुष्कान्यतरेऽन्तयेत् । अन्तर्मुहूर्ताद्युगपत् प्रागनन्तानु बन्धिनः ॥१२१६।। ततः क्रमेण मिथ्यात्वं मिश्रं सम्यकत्वमन्तयेत् । उच्यते कृतकरणः क्षीणेऽस्मिन् सप्तके च सः ॥१२२०॥ .
इसका अनुक्रम इस तरह है- इन चौथे से सातवें तक के किसी एक गुण स्थान में अन्तर्मुहूर्त में एक साथ पूर्व के चार अनन्तानुबन्धी कषायों का नाश करता