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यश्चात्य परयोस्तादृगपराध कृतो भवेत् । क्रोधः परस्मिन् स्वर्मिश्च स स्यादुभयसंश्रितः ॥४३२॥
३- इसी प्रकार दोष के सम्बन्ध में मनुष्य को अन्य के प्रति तथा स्वयं के प्रति क्रोध उत्पन्न होता है । वह उभय प्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है । (४३२)
बिना पराक्रोशनादि बिना च स्वकुचेष्टितम् । निरालम्बन एव स्यात् केवलं क्रोध मोहतः ॥४३३॥ स चा प्रतिष्ठितः क्रोधो दृश्यतेऽयं च कस्यचित् । क्रोध मोहोदयात्क्रोधः कर्हिचित्कारणं बिना ॥४३४॥ युग्म्।
४- अन्य व्यक्ति के आक्रोश किए बिना तथा स्वयं का भी कोई दोष न होने पर भी- इस तरह आलम्बन बिना ही- किसी को क्रोध चढ़ जाये तो वह अप्रतिष्ठित क्रोध कहलाता है। ऐसा क्रोध किसी को उत्पन्न होता है । वह क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से और किसी को बिना कारण से भी होता है। (४३३-४३४) अत एवोक्त पूर्वमहर्षिभिः
सापेक्षाणि च निरपेक्षाणि च कर्माणि फलविपाकेषु । सोपक्रमं च निरुपक्रमं च दृष्टं . यथायुष्कम् ॥४३५॥ इत्यादि अर्थतः प्रज्ञापना तृतीय पदे । एवमन्ये ऽपि त्रयः कषाया भाव्याः ॥
इस तरह होने से ही पूर्वाचार्यों ने प्रज्ञापना सूत्र में तीसरे पद में कहा है किआयुष्य जैसे सोपक्रमी और निरुपक्रमी है वैसे ही कर्म फल विपाक भी सापेक्ष तथा निरपेक्ष है । (४३५).
इस क्रोधं के विषय में चार भेद समझाये हैं अन्य तीन कषायों के सम्बन्ध में इसी तरह चार प्रकार समझ लेना।
चतुर्भिः कारणैरेते प्रायः प्रादुर्भवन्ति च ।
क्षेत्रं वास्तु शरीरं च प्रतीत्योपधिमंगिनाम् ॥४३६॥
मनुष्यों को ये चारों कषाय प्रायः क्षेत्र, मकान, शरीर और मालिक की वस्तुएं- इन चार कारणों से ही उत्पन्न होते हैं । (४३६)
सर्वस्तोका निष्कषाया मानिनोऽनन्तकास्ततः । कुद्ध माया विलुब्धाश्च स्युर्विशेषाधिकाः क्रमात् ॥४३७॥