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महत्या व्यक्तया कर्मक्षयोपशम जातया । संज्ञयाशस्तयैवांग लभते संज्ञितौ तथा ॥ ५८६ ॥
विशेषकम् ॥
इदमर्थतो विशेषावश्यके ॥
जिस तरह मनुष्य निद्रावश अवस्था में खुजली आदि करता है उसी तरह यह प्राणी मोहवश और अप्रगट चैतन्यावस्था में आहारादि करता है । इस तरह इसका संज्ञा का सम्बन्ध मात्र होता है, इतने से ही उसको संज्ञी रूप नहीं कहा जाता । जैसे एक ही सोने की मोहर वाले को धनवान नहीं कहते और उत्तम रूप के बिना रूपवान नहीं कहलाता परन्तु विशाल मात्रा में सोने की मोहर वाले को ही धनवान और उत्तम- सुन्दर रूप वाले ही रूपवान कहलाते हैं, इसी तरह जो बड़ी, व्यक्त और कर्मों के क्षय-उपशम के होने से सर्व प्रकार से प्रशस्त होती हैं ऐसी संज्ञा से ही जीव संज्ञावान् संज्ञी कहलाता है। (५८३ से ५८६ )
इस तरह विशेषावश्यक सूत्र में कहा है ।"
ततश्च......
येषामाहारादि संज्ञा व्यक्त चैतन्य लक्षणाः । कर्मक्षयोपशमजा संज्ञिनस्ते परेऽन्यथा ॥ ५८७॥
इस कारण से ऐसा समझना है कि- प्रकट, चैतन्य लक्षण वाली और कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न हुई आहार आदि संज्ञा जिस जीव को होती हैं वही संज्ञी कहलाता है और शेष सर्व असंज्ञी कहलाते हैं। (५८७)
दीर्घ कालिक्यादिका वा संज्ञा येषां भवन्ति ते ।
संज्ञिनः स्युर्यथा योगमसंज्ञिनस्तदुज्झिताः ॥ ५८८ ॥
इति संज्ञितादि ॥२३॥
अथवा जिसको दीर्घ कालिका आदि संज्ञायें होती हैं वही वास्तव में संज्ञी कहलाता है । इसके बिना सर्व को असंज्ञी समझना । (५८८)
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इस तरह तेईसवां द्वार संज्ञित-संज्ञी का स्वरूप कहा है ।
वेदस्त्रिधा स्यात्पुंवेदः स्त्रीवेदश्च तथापरः । क्लीव वेदश्च तेषास्युर्लक्षणानि यथाक्रमम् ॥५८६ ॥
अब चौबीसवें द्वार वेद के विषय में कहते हैं- वेद तीन प्रकार के हैंपुरुष वेद, स्त्री वेद और नपुंसक वेद । इनके लक्षण अनुक्रम से कहते हैं। (५८६)