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(२२८) विशेषरूप ग्राहि त्वे प्राप्ते नन्वेवमेतयोः ।
द्वयोर्मनो विषययोद्वैविध्ये किं निबन्धनम् ॥८६४॥
यहां फिर कोई शंका करता है कि- जब इस तरह से दोनों का विषय मन है और दोनों को विशेष रूप ग्रहण करने की शक्ति प्राप्त हुई है तब दोनों को एक समान करना चाहिए । दोनों भिन्न प्रकार क्यों रखा है ? (८६४) . अत्रोच्यते ..... अल्प पर्याय वेद्याद्यं घटादि वस्तु गोचरम् । ...
नानाविध विशेषावच्छेदि कि शुद्धतरं परम् ॥८६५॥' कस्यचिन्न पतत्याचं कस्यचिच्च पतत्यपि । अन्त्यं चा केवल प्राप्तेर्न पतत्येव तिष्ठति ॥८६६॥ .....
इसका उत्तर देते हैं कि- पहले का घटादि वस्तु मात्र विषय है और इस अल्प पर्याय को ही ग्रहण करने वाला है और दूसरा विपुलमति अनेक नाना प्रकार के विषय पर्यायों को ग्रहण कर सकता है और पहले से विशेष निर्मल-शुद्ध है। और प्रथम ऋजुमति कई प्राणियों को गिर जाता है और कईयों को सदा टिककर रहता है। जबकि दूसरा गिरता-जाता ही नहीं है, परन्तु केवल ज्ञान की प्राप्ति तक टिक कर रहने वाला है। (८६५-८६६)
तथोक्त तत्त्वार्थवृत्तौ-“यस्य पुनः विपुल मतेः मनः पर्याय ज्ञानं समर्जान तस्य न पतति आकेवल प्राप्तेः । इति॥". .
तत्त्वार्थ वृत्ति में कहा है कि- 'विपुल मति मनः पर्यवज्ञान जिसको होता है उसका पतन नहीं होता, वह केवल ज्ञान की प्राप्ति तक स्थिर रहता है।'
तत्त्वार्थ सूत्रऽपिविशुद्धच प्रतिपाताभ्यां तद्विशेष इत्युक्तम् ॥
तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि- दोनों के बीच में भेद है, वह विशुद्धि के कारण और पतन के कारण है।
योगशास्त्र प्रथम प्रकाश वृत्तौ अपिऋजुश्च विपुलश्चेति स्यान्मनः पर्यवो द्विधा । विशुद्धय प्रतिपाताभ्यां विपुलस्तु विशिष्यते ॥
इत्युक्तम् ॥ इति मनः पर्याय ज्ञानम् ॥