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अलग-अलग हैं तथापि विभंग मिथ्या रूप होने से, इस कारण से सम्यक् रूप में वस्तु निश्चय नहीं हो सकता है, वैसे अवधि दर्शन से भी इसके निराकार रूप होने के कारण वस्तु निश्चय नहीं हो सकता है। इसलिए इस दर्शन को अलग कहने से क्या लाभ है ? दोनों एक ही हैं। (१०६० से १०६२) तथोक्तम् .... सुत्ते अविभंगस्स य परूवियं ओहि दंसणं बहुसो।
कीस पुणो पडिसिद्धं कम्मपगडी पगरणं मि ॥१०६३॥ कहा है कि- सूत्र में विभंग ज्ञान में अवधि दर्शन कहा है, परन्तु कर्म प्रकृति के प्रकरण में इस बात का प्रतिषेध किया है। (१०६३) ____ "इत्याद्यधिकं विशेषणवत्याः प्रज्ञापनाष्टादश पदवृत्तितश्च अवज्ञेयम्॥" अर्थात्- 'अधिक विस्तार' 'विशेषणवती' में से तथा प्रज्ञापना सूत्र के अठारहवें पद की टीका में से जान लेना।' - तत्वार्थ वृत्ति कृतापि विभंगज्ञाने अवधि दर्शनं न अंगीकृतम्। "तथा च तद्ग्रन्थः अवधि दृगावरण क्षयोपशमात् विशेष ग्रहण विमुखः अवधिः अवधि दर्शनमित्युच्यते। नियमतस्तु तत्स्मग्दृष्टि स्वामि कम्।" इति॥
. तत्वार्थ वृत्ति के कर्ता ने भी विभंग ज्ञान के विषय में अवधि दर्शन स्वीकार नहीं किया। उन्होंने इस तरह कहा है- 'अवधि दर्शन के आवरण के क्षयोपशम से विशेष ग्रहण करने में विमुख जो अवधि ज्ञान है वह अवधि दर्शन कहलाता है। यह नियम केवल इतना ही है कि वह सम्यग दृष्टि वाले को ही होता है। और को नहीं होता।' . .
सर्व भूत भवद् भावि वस्तु सामान्य भावतः । .. बुध्यते के वल. ज्ञानादनु केवल दर्शनात् ॥१०६४॥
केवल ज्ञान के बाद केवल दर्शन से भूत, भविष्य और वर्तमान की सर्व . वस्तुओं को सामान्यतः जानते हैं। (१०६४)
आदौ दर्शनमन्येषां ज्ञान तदनुजायते । के वल ज्ञानिनामादौ ज्ञानं तदनुदर्शनम् ॥१०६५॥
केवल ज्ञानी के अलावा अन्य मति ज्ञानी आदि चार ज्ञान वाले को पहले दर्शन और बाद में ज्ञान होता है। जबकि केवल ज्ञानी के सम्बन्ध में तो पहले ज्ञान . होता है और बाद में दर्शन होता है । (१०६५)