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- और मनुष्य आदि अन्य जीवों की बात तो एक ओर रखो, फिर भी निगोद के जीवों में अव्यक्त स्पर्शमात्र की प्रतिपत्ति यथास्थित होती है उन्होंने उसको यथास्थिति स्वीकार किया है। जिस तरह घने बादलों से आच्छादित हुए सूर्य की कुछ प्रभा तो अनाच्छादित रहती ही है, यदि इस तरह न हो तो फिर रात्रि में और दिन में अल्पमात्र भी भेद नहीं रहता। (११३६-११४०)
इस तरह प्रथम गुण स्थानक समझना।
आयमौपशमिकाख्यं सम्यक्त्व स्यात्र सादयेत् । योऽनन्तानुबन्धि कषायोदयः साय सादनः ॥११४१॥
उत्कर्षादा वलीषट्कात् सम्यक्त्वमपगच्छति । - अनन्तानुबन्ध्युदये जघन्यात्समयेन यत् ॥११४२॥ युग्मं।
उपशम नाम वाला समकित के आय अर्थात् लाभ और सादन अर्थात् विनष्ट करता हैं, वह साय सादन नाम का दूसरा गुण स्थान है । इसमें अनन्तानुबन्धि कषाय का उदय होता है और यह उत्कृष्टतः छह आवली पर्यन्त और जघन्यतः एक समय तक टिकता है । (११४१-११४२)
पषोदरादित्वाल्लोपे यकारस्य भवेत्पदम् । आसादनमित्यनन्तानुबन्ध्युदय वाचकम् ॥११४३॥ ततश्च- आसादनेन युक्तो यः स सासादन उच्यते ।
स चासौ सम्यग्दृष्टिस्तद् गुण स्थानं द्वितीयकम् ॥११४४॥ पषोररादि इस व्याकरण के नियम के अनुसार से यकार का लोप हो जाने से .'आय सादन' के स्थान पर 'आसादन' शब्द बना और यह आसादना वाला 'स + आसादान' अर्थात् सासादन कहलाता है । यह सम्यग् दृष्टि जीव होता है और वह दूसरा गुण स्थानक कहलाता है । (११४३-११४४) - तच्चैवम्- प्रागुक्तस्यौपशमिक सम्यक्त्वस्य जघन्यतः ।
, शेषे क्षणे षट् सु शेषासूत्कर्षादावलीष्वथ ॥११४५॥ महाविभीषिकोत्थान कल्पः केनापि हेतुना । कस्याप्यनन्तानुबन्धि कषायाभ्युदयो भवेत् ॥११४६॥ युग्मं। अथैतस्मिन्ननन्तानुबन्धिनामुदये सति । सासादन सम्यग्दृष्टि गुण स्थानं स्पृशत्यसौ ॥११४७॥ वह इस तरह से- जघन्यतः पूर्वोक्त उपशम समकित के शेष अन्तिम