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(२८५) क्षपक श्योपशमक श्चेत्यसो भवति द्विधा । क्षपणोपशमाह त्वादेवायं प्रोच्यते तथा ॥११७८।।
और इसमें खत्म करने की और उपशम करने की योग्यता होने से इसके क्षपक और उपशमक ये दो भेद होते हैं। (११७८)
न यद्यपि क्षपयति न चोपशमत्ययम् । तथाप्युक्तस्तथा राज्याहः कुमारो यथा नृपः ॥११७६॥
यद्यपि उसे खत्म नहीं करता और उपशम भाव भी नहीं करता तथापि वह राज्य के योग्य एक राजकुमार के समान राजा कहलाता है । वैसे वह क्षपक और उपशमक कहलाता है। (११७६)
अन्तर्मुहूर्तमानाया अपूर्वकरण स्थितेः । आद्य एव क्षण एतद् गुणस्थानं प्रपत्रकान् ॥११८०॥ त्रैकालिकांगिनोऽपेक्ष्य जघन्यादीन्यसंख्यशः ।। स्थानान्यध्ववसायस्योत्कृष्टान्तानि भवन्ति हि ॥११८१॥ युग्मं। .
यह अन्तर्मुहूर्त जितना समय, 'अपूर्वकरण' स्थिति को पहले ही क्षण में आठवें गुण स्थान में पहुँचा हुआ हो, उन तीन काल के प्राणियों को अपेक्षा से अध्यवसाय के जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त असंख्य स्थान होते हैं। (११८०-११८१) . असंख्यलोकाकाशांशमितानि स्युर मुनि च ।
ततोऽधिकाधिकानि स्युर्द्वितीयादि क्षणेषु तु ॥११८२॥
और वह स्थान असंख्य लोकाकाश प्रदेश जितने होते हैं और फिर दूसरे तीसरे आदि क्षणों में इससे अधिक-अधिक होता हैं। (११८२)
आद्ये क्षणे यजघन्यं ततोऽनन्त गुणोज्वलम् । भंवेदाधक्षणोत्कृष्टं ततोनन्त गुणाधिकम् ॥११८३॥ क्षणे द्वितीये जघन्यमेवमन्त्य क्षणवधि । मिथः षट् स्थानपतितान्येकक्षण भवानि तु ॥११८४॥ युग्मं।
आद्य समय में अध्यवसाय का स्थान जघन्यतः जितना उज्ज्वल हो उससे भी अनन्त गुना उज्ज्वल आद्य क्षण का उत्कृष्ट होता है । द्वितीय क्षण का अध्यवसाय स्थानक जघन्यतः आद्य क्षण से भी अनन्त गुणा उज्ज्वल होता है । इस तरह अन्तिम क्षण तक पहुँचने में उज्ज्वलता अनन्त बढ़ती जाती है और इसमें से एक-एक क्षण के अध्यवसाय के परस्पर छः स्थान होते हैं। (११८४)