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(२८३) - सर्व सावध योग से त्यागी हुआ भी जो संयमी कषाय निद्रा, विकथा आदि प्रमादों को लेकर प्रमाद में पड़ता है वह प्रमत्त संयम कहलाता है और इसका गुण स्थानक 'प्रमत्त संयम' नामक कहलाता है । यह गुण स्थान पहले पांच से विशेष शुद्ध होता है और अब जो कहने में आयेगा वह इससे भी थोड़ा और शुद्ध है। अन्य गुण स्थानों में भी इसी तरह ही विशेषता को अल्पता जानना। (११६३ से ११६५)
यह छठा गुण स्थान जानना । यश्च निद्रा कषायादि प्रमादरहितो यतिः । गुणस्थानं भवेत्तस्या प्रमत्त संयताभिधम् ॥११६६॥
इति सप्तमम्।
जो संयमी अर्थात् साधु निद्रा, कषाय आदि प्रमादों से रहित हो उसका 'अप्रमत्त संयम' नामं का गुण स्थान कहा है। (११६६)
यह सातवां गुण स्थानक है। स्थितिघातो रसघातो गुणश्रेणिस्तथा परा । गुणानां संक्रमश्चैव बन्धो भवति पंवमः ॥११६७।। एषां पंचानाम .पूर्व करणं प्रागपेक्षया ।
भवेद्यस्या सावपूर्व करणो नाम कीर्तितः ॥११६८॥ • स्थिति घात, रस घात, गुण श्रेणि, गुण संक्रम और बन्ध- इन पांचों का जिस संयमी को पूर्व की अपेक्षा से अपूर्वकरण होता है; उस संयमी का अपूर्वकरण नाम का गुण स्थान कहा है। (११६७-११६८)
गरीयस्याः स्थितेना॑नावरणीयादि कर्मणाम् । योऽपवर्तनया घातः स्थिति घातः स उच्यते ॥११६६॥
ज्ञानावरणीय आदि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति के अपवर्तन का घात करना-कम करना - उसका नाम स्थिति घात करना है । (११६६)
कर्मद्रव्यस्थ कटुकत्वादिकस्य रसस्य हि । योऽपवर्तनया घातो रसघातः स कीर्त्यते ॥११७०॥
तथा कर्म द्रव्य में रहे कटुता आदि रसों का अपवर्तन-हीनता करने के घात करना, वह रस घात कहलाता है । (११७०)