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एतौ पूर्व गुणस्थानेष्वल्पावेव करोति सः । विशुद्धयल्पतयास्मिस्तु महान्तौ शुद्धि वृद्धितः ॥११७१॥ ..
पूर्व के गुण स्थानों में शुद्धि का अल्पत्व होने से, संयमी ये दोनों प्रकार के घात अल्प प्रमाण में करता है, जब इस गुण स्थान में शुद्धि का विशेष रूप होता है तब वह दोनों घात विशेष प्रमाण में करता है । (११७१) .
यत्प्रागाश्रित्य दलिक रचनां तां लघीयसीम् । चकार कालतोद्राधीयसी शुद्धचपकर्षतः ॥११७२॥ अस्मिंस्त्वाश्रित्य दलिकरचनां तां प्रथीयसीम् । करोति कालतोऽल्पां तदपूर्वां प्रागपेक्षया ॥११७३॥ युग्मं ।
पूर्व के गुण स्थानों में दल-समूहों की छोटी रचना की शुद्धि की अल्पता को लेकर बड़ी काल की स्थिति वाली करता था और इस गुण स्थान में बड़ी रचना को अल्पकाल स्थिति वाला करता है, इसलिए पूर्व की अपेक्षा से यह अपूर्व कार्य कहलाता है । (११७२-११७३) .
तथा बध्यमान शुभ प्रकृतिष्वशुभात्मनाम् । तासामबध्य मानानां दलिकस्य प्रति क्षणे ॥११७४॥ असंख्य गुणा वृद्धया यः क्षेपः स गुणसंक्रमः । तमप्यपूर्व कुर्वीत सोऽत्र शुद्धि प्रकर्षणः ॥११७५॥ युग्मं।
और बन्धन करते हुए शुभ प्रकृतियों में अशुभ प्रकृति के दल-समूह का बंधन नहीं होता, प्रति क्षण में असंख्य गुणों का क्षेप (त्याग) या संक्रम होता है। इसका नाम गुण संक्रम है और इसे भी संयमी यहां शुद्धि की विशेषता के कारण अपूर्व करता है । (११७४-११७५)
स्थितिं द्राधीयसीं पूर्व गुणस्थानेषु बद्धवान् । . अशुद्धत्वादिह पुनस्तामपूर्वां विशुद्धितः ॥११७६॥ पल्यासंख्येय भागेन हीन हीनतरां सृजेत् ।। तद् गुणस्थानमस्य स्यादपूर्व करणाभिधम् ॥११७७॥ युग्मं।
तथा पूर्व के गुण स्थानकों में अशुद्धता को लेकर संयमी ने दीर्घ स्थिति बन्धन की थी परन्तु यहां तो विशुद्धि को लेकर अपूर्व स्थिति को वह पल्योपम के असंख्यातवें भाग में कम करते जाता है। इन कारणों से इस गुण स्थान का नाम अपूर्वकरण कहलाता है । (११७६-११७७)