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गुण स्थान 'सूक्ष्म संपराय' गुण स्थान कहलाता है । (११६६)
इस तरह यह दसवां गुण स्थान है । येनोपशमिता विद्यमाना अपि कषायकाः । नीता विपाक प्रदेशोदयादीनामयोग्यताम् ॥११६७॥ उपशान्त कषायस्य वीतरागस्य तस्य यत् । छद्मास्थस्य गुणस्थानं तदाख्यातं तदाख्यया ॥११६८॥ युग्मं।
जिसने विद्यमान कषायों को उपशम भाव में किया हो और विपाक अथवा प्रदेश के उदय आदि को योग्य रहने न दिया हो, इस प्रकार कषाय रहित - छद्मस्थ वीतराग का जो गुण स्थान है वह उपशान्त मोह गुण स्थान कहलाता है। (११६७-११६८)
असौह्य पशम श्रेण्यारम्भेऽनन्तानुबन्धिनः । कषायान् द्रागविरतो देशेन विरतोऽथवा ॥११६६॥ प्रमत्तो वाप्रमत्तः सन् शमयित्वा ततः परम् । दर्शन मोह त्रितयं शमयेदथ शुद्धधी: ॥१२००। युग्मं।
इस गुण स्थान में रहे मुनि उपशम श्रेणि के प्रारम्भ में अविरति रहकर या देशतः विरति होकर, प्रमाद में रहकर अथवा प्रमाद छोड़कर, अनन्तानुबन्धी कषायों को शीघ्रता से शान्त करके फिर शुद्ध बुद्धि वाला वह तीन दर्शन मोहनीय कर्मों को शान्त करता है । (११६६-१२००).
"कर्म ग्रन्थावचूरौतु इहोपशम श्रेणिकृत् अप्रमत्त यतिरेव। केचिदाचार्याः अविरत देश विरत प्रमत्ताप्रमत्त यतीनामन्यतमः इत्याहुरिति दृश्यते॥" :
'कर्म ग्रन्थ की अवचूरि-टीका में तो इस तरह कहा है कि अप्रमत्त साधु ही उपशम श्रेणि में चढ़ सकता है । कई आचार्यों का तो ऐसा मानना है कि अविरति, देश विरति, प्रमत्त अथवा अप्रमत्त कोई भी मुनि चढ़ सकता है।'
श्रयन्त्युपशमश्रेणिमाद्यं संहननत्रयम् ।। दधाना नार्धनाराचादिकं संहननत्रयम् ॥१२०१॥
प्रथम तीन संहनन-संघयण को धारण करने वाला उपशम श्रेणि का आश्रय करता है । अर्ध नाराच आदि अन्य तीन संघयण वाला इसका आश्रय नहीं ले सकता है । (१२०१)