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(२८७)
... अन्तर्मुहूर्तमानस्य यावन्तोऽस्य क्षणाः खलु ।
तावन्त्ये वाध्यवसाय स्थानान्याहुर्जिनेश्वरा ॥११६१॥
अन्तर्मुहूर्त प्रमाण के अनुसार इस गुण स्थान का जितना क्षण-समय है उतने ही उसके अध्यवसाय के स्थान है, इस तरह श्री जिनेश्वर भगवान् के वचन हैं। (११६१)
अस्मिन् यदेक समये प्राप्तानां भूयसामपि । एकमेवाध्यवसाय स्थानकं कीर्तितं जिनैः ॥११६२॥
क्योंकि समकाल के अन्दर इस गुण स्थान में पहुँचने वाले अनेक आत्माओं का अध्यवसाय स्थान एक ही होता है। इस तरह जिनेश्वर भगवन्त ने कहा है । (११६२)
अनन्त गुण शुद्धं च प्रतिक्षणं यथोत्तरम् । स्थानमध्यवसायस्य गुणस्थानेऽत्र कीर्तितम् ॥११६३॥ तथा इस गुण स्थान में अध्यवसाय का स्थान प्रत्येक क्षण में उत्तरोत्तर अनन्त-अनन्त गुण शुद्ध होते जाते हैं। (११६३)
क्षपक शो पशमकश्चेत्यसो भवति द्विधा । क्षपयेद्वोपशमये द्वासौ यन्मोहनीयकम् ॥११६४॥
इति नवमम् ॥ . और इसके क्षपक और उपशमक ये दो भेद हैं क्योंकि यह मोहनीय कर्म को क्षयं करता है अथवा उपशम भाव करता है । (११६४) - इस तरह नौंवां गुण स्थान समझना ।
- सक्ष्म कीट्टी कृतो लोभ कषायोदय लक्षणः ।
संपरायो यस्य सूक्ष्म संपरायः स उच्यतेः ॥११६५॥
लोभ कषाय के उदय रूप लक्षण वाला, किट्टी रूप किया हुआ सूक्ष्म संपराय जिस प्राणी को हो वह सूक्ष्म संपराय कहलाता है । (११६५)
क्षपकश्योपशमकश्चेति स्यात्कोऽपि हि द्विधा । गुण स्थानं तस्य सूक्ष्म संपरायाभिधं स्मृतम् ॥११६६॥
इति दशमम् ॥
इसके भी पूर्व के समान क्षपक और उपशमक दो भेद हैं और इसका