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(२८१) पूर्वोक्त पुंज त्रितये स यद्यर्ध विशुद्धकः । समुदेति तदा तस्योदयेन स्याच्छरीरिणः ॥११५४॥ श्रद्धा जिनोक्ततत्त्वेऽर्घ विशुद्धासौ तदोच्यते ।
सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति गुणस्थानं च तस्य तत् ॥११५५॥ युग्मं। - पहले जो तीन पुंज कहे गये हैं उनमें के एक अर्ध विशुद्ध नाम के पुंज का जब उदय होता है तब प्राणी को जिन भाषित तत्त्व में अर्ध विशुद्ध श्रद्धा उत्पन्न होती है और तब वह प्राणी सम्यमिथ्या दृष्टि कहलाता है और इसका गुण स्थानक सम्यक् मिथ्यादृष्टि गुण स्थानक कहलाता हैं। (११५४-११५५)
अन्तर्मुहर्त कालोऽस्य तत उर्ध्व स देहभृत । अवश्यं याति मिथ्यात्वं सम्यकत्वमथवाप्नुयात् ॥११५६॥
इति तृतीयम्॥ .... इस गुण स्थानक का काल अन्तर्मुहूर्त का है । उसके बाद वह प्राणी अवश्य मिथ्यात्व अथवा समकित प्राप्त करता है। (११५६) - इस तरह यह तीसरा गुणस्थानक कहलाता है।
सावद्ययोगाविरतो यः स्यात्सम्यकत्ववानपि ।
गुणस्थानमविरत सम्यग्दृष्टयाख्यमस्य तत् ॥११५७।। - सम्यक्त्ववान होने पर भी जो प्राणी सावधयोग से त्यागी न बने उसका गुण स्थान अविरत सम्यग् दृष्टि कहलाता है । (११५७)
पूर्वोक्त मौ पशमिकं शुद्ध पुंजोदयेन वा । क्षायोपशमिकाभिख्यं सम्यक्त्वं प्राप्तवानपि ॥११५८॥ सम्यकत्वं क्षायिकं वाप्तोक्षीण दर्शन सप्तकः । कलयन्नपि सावधविरति मुक्तिदायिनीम् ॥११५६।। नैवा प्रत्याख्यान नाम कषायोदय विघ्नतः । सदेशतोऽपि विरतिं कत्तुं पालयितुं क्षम ॥११६०॥
त्रिभिः विशेषकं। इति चतुर्थम् ॥