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क्षण-समय में और उत्कृष्टतः छह आवली शेष रहे तब होता है । वह किसी भी प्राणी को किसी भी हेतु को लेकर महान् उत्पात के उदय के समान अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से होता है। इस अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय होने के बाद प्राणी 'सासादन सम्यग् दृष्टि' नामक गुण स्थान में पहुँचता हैं।' (११४५ से ११४७)
यदिवोपशम श्रेण्याः स्यादिदं पतिताङ्गिनः । सम्यकत्वस्यौपशमिकस्यान्ते कस्यापि पूर्ववत् ॥११४८॥ तत ऊर्ध्व च मिथ्यात्वमवश्वमेव गच्छति । पतन द्वितीय सोपानादाद्यमेवहि गच्छति ॥११४६॥
अथवा जो पूर्व में कह गये हैं उसके अनुसार उपशम समकित को अन्त में उपशम श्रेणि से पतित हुए किसी भी प्राणी का यह गुण स्थान होता है । इससे आगे बढने से तो अवश्यमेव मित्थात्व गुण स्थान में ही वापिस आ जाता है क्योंकि दूसरे सोपान से गिरने से पहले सोपान में ही गिरता है। (११४८-११४६).
नाम्ना सास्वादन सम्यग्दगगुणस्थानमप्यदः । उच्यते तत्र चान्वर्थों मतिमद्भिरयं स्मृतः ॥११५०॥ उद्वम्यमान सम्यक्त्वास्वादनेन सहास्ति यः ।
सहि सास्वादन सम्यग् दृष्टिरित्यभिधीयते ॥११५१॥ • इस गुण स्थान को सास्वादन सम्यग् दृष्टि गुण स्थान भी कहते है। बुद्धिमान पुरुषों ने इसका नाम सार्थक भी कहा है क्योंकि समकित का वमन हुआ हो, इसके आस्वादन वाला जो गुण स्थान है वह 'सास्वादन सम्यक् दृष्टि गुण स्थान' हैं। . (११५०-११५१)
यथाहि युक्तं क्षीरानमुद्वमन्मक्षिका दिना । किंचिदा स्वदयत्येव तद्रसं व्यग्र मानस ॥११५२॥ तथायमपि मिथ्यात्वाभिमुखो भ्रान्तमानसः । सम्यकत्वमुद्वमन्ना स्वादयेत्किंचन तद्रसम् ॥११५३॥
___ इति द्वितीयम् ॥ जिस तरह व्यग्र मन वाले को खाये हुए अन्न का मक्खी आदि से वमन होता है तब उसे उस वमन किए रस का कुछ तो स्वाद आता है, उसी तरह यह प्राणी भी भ्रान्ति के कारण मित्थात्वोन्मुख होने पर समकित का वमन करता है। तब. उसे उसका कुछ स्वाद आये बिना नहीं रहता। (११५२-११५३)
इस तरह का यह दूसरा गुण स्थानक है।