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गुण ज्ञानदयस्तेषां स्थानं नाम स्वरूपभित् । शुद्धयशुद्धि प्रकर्षापकर्षोत्थात्र प्रकीर्त्यते ॥११३३॥ जीव के जो ज्ञान आदि गुण है उनका स्थान ये गुण स्थान अर्थात् इसके स्वरूप का भेद है, वह भेद इसकी शुद्धि, अशुद्धि, पकर्ष और अपकर्ष - इन चारों को लेकर हुआ है । (११३३)
तत्र मिथ्या विपर्यस्ता जिन प्रणीत वस्तुषु । दृष्टिर्यस्य प्रतिपत्तिः स मिथ्या दृष्टिरुच्यते ॥११३४॥ यत्तु तस्य गुण स्थानं सम्यग्दृष्टिमबिभ्रतः । मिथ्यादृष्टि गुण स्थानं तदुक्तं पूर्व सूरिभिः ||११३५ ॥
श्री जिनेश्वर प्रणीत तत्त्वों को जो मनुष्य मिथ्यात्व के कारण विपरीत दृष्टि
से देखता है वह मिथ्या द्दष्टि कहलाता है और ऐसे असम्यक् दृष्टि वाले मनुष्य का स्थान पूर्वधर आचार्यों ने मिथ्या दृष्टि गुण स्थान कहा है । (११३४-११३५) ननु मिथ्यादृशदृष्टे विपर्यासात्कुतो भवेत् ।
ज्ञानादि गुण सद्भावो यद्गुण स्थानतोच्यते ॥ ११३६॥
यहां शंका करते हैं कि- मिथ्या दृष्टि की तो दृष्टि विपरीत होती है, इनकी दृष्टि विपर्यसित है अर्थात् इनमें ज्ञान आदि गुणों का सद्भाव ही नहीं होता तो फिर इसे 'गुणस्थान' किस तरह कहते हैं ? ( ११३६ )
अत्र ब्रूमः - भवेद्यद्यपि मिथ्यात्ववताममुमतामिह । प्रतिपत्तिर्विपर्यस्ता जिन प्रणीत वस्तुषु ॥ ११३७॥ तथापि काचित् मनुजपश्वादि वस्तु गोचरा । तेषामप्यविपर्यस्ता प्रतिपत्तिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ ११३८ ॥ युग्मं | यहां शंका का समाधान करते हैं कि- यद्यपि जिनेश्वर कथित वस्तुओं को मिथ्या दृष्टि जीव विपरीत रूप में मानता है फिर भी मनुष्य, पशु, पक्षी आदि वस्तुओं के विषय में तो इनकी मान्यता अविपरीत - सही है। इसलिए गुण स्थान मानना योग्य है । (११३७ - ११३८ )
आस्तामन्ये मनुष्यद्या निगोद देहिनामपि ।
अस्त्यव्यक्त स्पर्श मात्र प्रतिपत्तिर्यथा स्थिता ॥ ११३६ ॥
यथा घन घनच्छन्नेर्केऽपि स्यात्कापि तत्प्रभा । अनावृत्ता न चेद्रात्रिदिना भेदः प्रसज्यते ॥१०४० ॥
इति प्रथम गुण स्थानम् ।