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(२६६) "अतएव सव्वन्नूणं सव्वरीसीणं इति पठ्यते ॥"
इसीलिए ही सर्व ज्ञान वाले, सर्व दर्शन वाले, इस प्रकार अनुक्रम से सब स्थान पर पाठ आता हैं।'
प्रज्ञप्ताः सर्वतः स्तोका जन्तवोऽवधि दर्शनाः । असंख्यगुणितास्तेभ्यश्चक्षुर्दर्शनिनो मताः ॥१०६६।।
अवधि दर्शन वाले प्राणी सब से अल्प होते हैं, इससे असंख्य गुणा चक्षु दर्शन वाले होते हैं । (१०६६)
अनन्त गुणितास्तेभ्यो मताः केवल दर्शनाः । अचक्षुर्दर्शनास्तेभ्योऽप्यनन्त गुणिताधिकाः ॥१०६७॥...
इससे अनन्त गुणा केवल दर्शन वाले होते हैं और इससे भी अचक्षु दर्शन वाले अनन्त गुणा हैं। (१०६७)
कालश्चक्षुर्दर्शनस्य जघन्योऽन्तर्मुहूर्त्तकम् ।..... सातिरेकं पयोराशि सहस्रं परमः पुनः ॥१०६८॥ .
चक्षु दर्शन का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट काल सहस्त्र सागरोपम से अधिक है। (१०६८) .
अचक्षुर्दर्शनस्यासावभव्यापेक्षया भवेत् । अनाद्यन्तोऽनादि सान्तो भव्यानां सिद्धियादिनाम् ॥१०६६॥
अचक्षु दर्शन का उत्कृष्ट काल अभव्य की अपेक्षा से अनादि अनन्त है और मोक्ष जाने वाला भव्य की अपेक्षा से अनादि सान्त है । (१०६६)
जघन्येनैक समयः स्यात्कालोऽवधि दर्शने । उत्कर्षतो द्विः षट् षष्टिर्वार्धयः साधिकामताः ॥१०७०॥
अवधि दर्शन का काल जघन्यतः एक समय है और उत्कृष्ट एक सौ बत्तीस सागरोपम से अधिक होता है । (१०७०)
ज्येष्टो नन्ववधि ज्ञान कालः षट्षष्टि वार्धयः । . अवधेर्दर्शन तर्हि यथाक्तो घटते कथम् ॥१०७१॥
यहां प्रश्न करते हैं कि- अवधि ज्ञान की स्थिति जब उत्कृष्ट छियासठ सागरोपम है तब अवधि दर्शन की एक सौ बत्तीस सागरोपम की स्थिति कैसे संभवित हो सकती हैं ? (१०७१) .