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विदिसा ओ दिसं पढमे बीए पइसरइ नाडि मज्झंमि । उटुं तइए तुरिए उ नीइ विदिसं तु पंचम ए ॥११०६॥
और शास्त्र में भी कहा है कि- जीव पहले समय में विदिशा में से दिशा में जाता है, दूसरे समय में नाड़ी के अन्दर प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्व गति करता है, चौथे समय में अधो गति करके बाहर निकलता है और पांचवें समय में विदिशा के किसी कोने का आश्रय लेता है । (११०६)
. इति भगवती वृत्तो शतक १४ प्रथमोद्देश के ।
"भगवती सप्तम शतक प्रथमोद्देशके तु पंच सामयिकी विग्रह गतिमाश्रित्य इत्थमुक्तं दृश्यते। इदं च सूत्रे न दर्शितम्। प्रायेण इत्थमनुत्पत्तिः । इति॥" . इस तरह श्री भगवती की वृत्ति में चौदहवें शतक के पहले उद्देश में बातें
कही हैं । सातवें शतक के.पहले उद्देश में तो पांच समय की विग्रह गति के सम्बन्ध में इस प्रकार होता है - ऐसा कहा है। मूल सूत्र में ऐसा कुछ भी बताया नहीं है। क्योंकि प्रायः इस प्रकार से उत्पत्ति नही होती।'
व्यवहारांपेक्षया च भवेदाहारकोऽसुमान् ।। गतौ किलैक वक्रानां समय द्वितयेऽपि हि ॥११०७॥ तथाहि समये पूर्वे शरीरमेष उत्सृजेत् । तस्मिन्पुनः तच्छरीर योग्याः केचत पुद्गलः ॥११०८॥ लोमाहारेण सम्बन्धमायान्ति जीव योगतः ।
औदारिकादि पुद्गलादानं चाहार उच्यते ॥११०६॥ युग्मं। . तथा व्यवहार नय की अपेक्षा से प्राणी एक वक्र गति में दोनों समय में आहारक होता है। पूर्व के पहले समय में शरीर त्याग कर देता है और इसी समय में वह शरीर के योग्य होता है उस समय कई पुद्गल जीव के योग के कारण लोभ-आहार से उसके सम्बन्ध में आते हैं तब औदारिक आदि पदगलों को जीव ग्रहण करता है, उसका नाम आहार कहते हैं। (११०७ से ११०६)
एवमत्राद्य समये आहारः परिभावितः । सर्वत्रैवं द्विवकादावप्याद्य क्षण आहृतिः ॥१११०॥
इस तरह एक वक्र गति में आद्य समय में जीव को आहार कहा है। द्वि वक्र आदि की गति में भी सर्वत्र इसी तरह पहले समय में आहार जानना। (१११०)