________________
(२६८)
अब उन्तीसवें द्वार 'आहार' के विषय में कहते हैं - वक्र गति वाले के अलावा अन्य सर्व छद्मस्थ जीव आहारक होते हैं। उसमें भी तीन अथवा चार समय तक तो अनाहार रूप में रहते हैं। (१०७६)
गतिर्द्विधा हि जन्तूनां प्रस्थितानां पर भवम् । सरला कुटिला चापि तत्रैक समयादिमा ॥१०७७॥
पर भव-दूसरे जन्म में जाते समय प्राणी की ऋजु और वक्र - इस तरह की गति होती है। उसमें प्रथम ऋजु गति केवल एक समय की होती है । (१०७७)
उत्पत्ति देशो यत्रस्यात्सम श्रेणि व्यवस्थितः । तत्रैक समये नैव ऋजु गत्यासुमान् व्रजेत् ॥१०७८॥ परजन्मायुराहारौ क्षणेऽस्मिन्नेव सोऽश्नुते । : .... तुल्यमेतद् जुगतौ निश्चय व्यवहारयोः ॥१०७६।।
जहां उत्पत्ति देश समश्रेणि में रहा हो वहां प्राणी ऋजु और गति द्वारा एक समय में ही जाता है और उसी समय में वह पर जन्म सम्बन्धी आयुष्य और आहार भोगता है। इस ऋजु गति में निश्चय और व्यवहार दोनों नय की अपेक्षा से वह समान ही है। (१०७८-१०७६)
द्वितीय समयेऽऋच्या व्यवहार नयाश्रयात् ।। उदेति पर जन्मायुरिदं तात्पर्यमत्र च ॥१०८०॥
परन्तु वक्र गति में व्यवहार नय की अपेक्षा से दूसरे समय में दूसरे जन्म की आयु उदय में आती है । (१०८०)
. प्राग्भवान्त्य क्षणो वक्रा परिणामाभिमुख्यतः । कैश्चिद्वकादि समयो गण्यते व्यवहारतः ॥१०८१॥ . ततश्च ..... भवान्तराद्य समये गतेस्त्वस्मिन् द्वितीयके ।
समये पर जन्मायुरुदेति खलु तन्मते ॥१०८२॥ इसका तात्पर्य इस तरह है- प्राग्भव-पूर्वजन्म के अन्त्य समय में वक्र गति के परिणाम की अभिमुखता को लेकर, कई व्यवहार से वक्र के आदि समय को गिनते हैं और इससे उनके मत में जन्मान्तर के आद्य समय में अर्थात् वक्र के दूसरे समय में पर जन्म सम्बन्धी आयुष्य उदय में आता है। (१०८१-१०८२)