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यदाहुः उज्जुगइ पढम समये परभवियं आउअं तहाहारो । वक्काइ बीअ समये पर भवि आउं उदयमेइ ॥ १०८३ ॥ अन्यत्र भी कहा है कि - ऋजु गति वाल को जन्मान्तर के पहले समय में पर जन्म सम्बन्धी आयुष्य और आहार होता है और वक्र गति वाले को दूसरे समय में आयुष्य उदय में आता है । (१०८३)
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निश्चयनयाश्रयाच्च
संमुखोऽङ्गी गतेर्यद्यप्यन्त्यक्षणे तथापि हि । सत्वात्प्राग्भव सम्बन्धि संघात परिशाटयोः ॥१०८४॥
समयः प्राग्भवस्यैष सम्भवेन्न पुनर्गतेः । प्राच्यांग सर्वशाटोऽग्ग्रभवाद्यक्षण एव यत् ॥१०८५ ॥
तथा निश्चय नय के आश्रय से तो- प्राणी अन्त्य समय में गति के सन्मुख होता है, फिर भी पूर्वजन्म सम्बन्धी संघात और परिशार ( ग्रहण और त्याग ) सत्ता में होने से, इस समय पूर्व जन्म ही संभव होता है, पर जन्म संभव नहीं होता । क्योंकि पूर्व जन्म के शरीर का सर्वथा त्याग और आगामी जन्म का आद्य क्षण में ही होता है । (१०८४ - १०८५)
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'पर भवपढमे सोडात्ति' आगम वचनात् "
अर्थात् आगम का भी वचन है कि परजन्म के आद्य क्षण में परिशाट - पूर्व शरीर का सर्वथा त्याग होता है ।
उदेति समयेऽत्रेव गतिः सह तदायुष । ततोऽन्यजन्मायुर्वक्र गतावप्यादि भक्षणे ॥१०८६॥
और इसी समय में उस आयुष्य के साथ गति उदय में आती है । इससे अन्य जन्म का आयुष्य वक्र गति में भी आद्य क्षण के अन्दर उदय में आता है। (१०८६)
तत्र संघात परिशाट स्वरूपं चैवम् आगमे
संघातः परिशाटश्च तौ द्वौ समुदिता विति ।
औदारिकादि देहानां प्रज्ञप्तं करण त्रयम् ॥१०८७ ॥
सर्वात्मना पुद्गलानामाद्ये हि ग्रहणं क्षणे । चरमे सर्वथा त्यागो द्वितीयादिषु चोभयम् ॥१०८८ ॥