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( २६७ )
अवधौ च विभंगे चावधि दर्शनमास्थितम् । ततो द्वाभ्यां सहभावाद्युक्तः सोऽवधि दर्शने ॥१०७२॥
इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि- अवधि ज्ञान और विभंग ज्ञान, इन दोनों में अवधि दर्शन रहा है इसलिए उन दोनों का साथ में सहभाव होने से अवधि दर्शन का १३२ (६६+६६ १३२) सागरोपम का स्थिति काल युक्त ही है । (१०७२) 'अत्र बहु वक्तव्यम् । तत्तु प्रज्ञापनाष्टादशपद वृत्तितः असेयम् ॥'
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अत्रोच्यते
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'इस सम्बन्ध में कहने को तो बहुत है परन्तु वह श्री प्रज्ञापना सूत्र की अठारहवें पद की टीका से जान लेना । '
कालः सादिरनन्तश्चभवेत्के वल दर्शने ।
एषु कस्याप्यनादित्वं नाचक्षुर्दर्शनं बिना ॥१०७३॥ इति दर्शनम् ॥२७॥
केवल दर्शन का काल सादि अनन्त होता है । दर्शनों में अचक्षु दर्शन के सिवाय अन्य कोई दर्शन अनादि नहीं है । (१०७३)
इस प्रकार दर्शन के स्वरूप का वर्णन समाप्त हुआ ||२७| अथ उपयोगाः ॥
. चतुष्टमी दर्शनानां त्र्यज्ञानी ज्ञान पंचकम् । अमी द्वादश निर्दिष्टा उपयोगा बहु श्रुतः ॥ १०७४॥
ज्ञान पंचक ज्ञान त्रयं साकारका अमी ।
उक्ता शेषास्त्वनाकारश्चतुर्दर्शन लक्षणाः ॥ १०७५।। इति उपयोगाः ॥२८॥
अब अट्ठाईसवें द्वार उपयोग के विषय में कहते हैं - चार दर्शन, तीन अज्ञान और पांच ज्ञान - इन बारहं का बहुश्रुत पुरुषों ने 'उपयोग' कहा है। पांच ज्ञान और तीन अज्ञान इन आठ का उपयोग साकार है और शेष चार अर्थात् दर्शन रूप उपयोग अनाकार होता है। (१०७४- १०७५)
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इस तरह उपयोग का स्वरूप कहा है।
अथ आहारः ॥
आहारकाः स्युः छद्मस्थाः सर्वे वक्र गतिं बिना ।
त्रिचतुः समायान्ता स्यात्तत्रानाहारि तापि च ॥ १०७६॥