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के वल स्थितिरुक्तै व साद्यनन्तेत्यनन्तरम् । मत्याज्ञान श्रुताज्ञान स्थितिस्त्रेधा भवेद्रथ ॥६६४॥
अनाद्यनन्ता भव्यानां भव्यानां द्विविधा पुनः । .. अनादि सान्ता साद्यन्ता तत्राद्या ज्ञान सम्भवे ॥६६५॥
केवल ज्ञान की स्थिति तो सादि अनन्त है, वह पहले कह दिया है। अब मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान की स्थिति तीन प्रकार की कही है- १- अनादि अनंत, २- अनादि सान्त और ३- सादि सान्त । अभव्य अनादि अनन्त होते हैं। भव्य अनादि सान्त और सादि सान्त दो प्रकार के होते हैं। इसमें प्रथम प्रकार की अनादि सांत स्थिति जब अज्ञान मिटकर ज्ञान संभव होता है तब होती हैं । (६६४-६६५)
सादि सान्ता पुनदे॒धा जघन्योत्कृष्ट भेदतः । जघन्यान्तर्मुहूर्तं स्यात् सा चैव परिभाव्यते ॥६६॥ जन्तो भ्रष्टस्य सम्यकत्वात् पुनरन्तर्मुहूर्ततः । सम्यकत्वलब्धौ लध्वी स्याद ज्ञानद्वितय स्थितिः ॥६६७॥
और सादि सान्त के भी दो भेद हैं, १- जघन्य और २- उत्कृष्ट । उसमें जघन्य अन्तर्मुहूर्त का होता है । वह इस तरह- समकित से पतित हुए प्राणी को पुनः अन्तर्मुहूर्त में समकित प्राप्त हो तो दोनों अज्ञानों की जघन्य स्थिति होती है । (६६६-६६७)
अनन्त काल चक्राणि कालतः परमास्थितिः । देशोनं पुद्गल परावर्तार्द्ध क्षेत्र तस्तु सा ॥६६८॥ भावना..... सम्यकत्वतः परिभ्रश्यं वनस्पत्यादिषु भ्रमन ।
- सम्यक्त्वंलभतेऽवश्यं कालेनेतावता पुनः ॥६६६॥ : उनकी उत्कृष्ट स्थिति काल से अनन्त काल चक्र तक की होती है और क्षेत्र से अर्धपुद्गल परावर्तन से कुछ अधिक होती है और वह इस तरह है किसमकित से पतन होने से वनस्पति आदि में परिभ्रमण करते हुए इतने काल में पुनः निश्चय से समकित प्राप्त करता है। (६६८-६६६) ... जघन्यात्वेक समयं विभगंस्य स्थितिः किल ।
उत्पद्य समयं स्थित्वा भ्रमयतः सा पुनर्भवत् ॥१०००॥ , त्रयास्त्रिशत्सागराणि विभंगस्य स्थितिर्गुरु । देशो नया पूर्व कोटयाधिकानि तत्र भावना ॥१००१॥